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गोपीभाव की प्राप्ति वृन्दावन

गोपीभाव की प्राप्ति-

सप्रेम हरिस्मरण! पत्र मिला । आप गोपी-प्रेम प्राप्त करने की अभिलाषा रखते हैं- यह तो बड़े सौभाग्य की बात है । उसके लिये आपने जो तीन प्रश्न पूछे हैं, उनके विषय में मैं अपने विचार नीचे लिखता हूँ-

1.      गोपी-प्रेम की प्राप्ति सभी को हो सकती है । बिना इस भाव की प्राप्ति हुए तो प्रियतम की अन्तरंग लीलाओं में प्रवेश ही नहीं हो सकता, परंतु यह सर्वोच्च सौभाग्य किस जीव को कब प्राप्त होगा- इसका निर्णय कोई नहीं कर सकता । यह तो उन प्राणनाथ की अहैतुकी कृपापर ही अवलम्बित है । वे जब कृपा करके जिस जीव को वरण करते हैं, तभी उसे यह सर्वोच्च अधिकार प्राप्त होता है । जीव तो अधिक-से-अधिक अपने को उनके चरणों में समर्पित ही कर सकता है । समर्पण ही इसका साधन है । साधन इसलिये कि जीव अधिक-से-अधिक इतना ही कर सकता है, परंतु वास्तव में यह भाव तो साधन-साध्य नहीं है, केवल कृपासाध्य ही है ।

2.      गोपीभाव की प्राप्ति सब कुछ त्यागनेपर तो होती है, परंतु यह सर्वस्व-परित्याग किसी बाह्य क्रियापर अवलम्बित नहीं है । यह घर में रहते हुए भी हो सकता है और वन में जानेपर भी नहीं होता । गोपियाँ कब वन में गयी थीं । यह तो भाव की एक परमोत्कृष्ट अवस्था है, जो प्रेम का परिपाक होनेपर ही होती है । प्रेमी के लिये तो सब कुछ प्राणनाथ का ही है; उसका है क्या, जिसे वह छोड़े । छोड़ने के साथ तो सूक्ष्मरूप से ममता का पुट लगा हुआ है । जिसकी किसी में ममता नहीं है, वह किसे छोड़ेगा ? अतः छोड़ने का स्वाँग न करके प्रेम की अभिवृद्धि ही करनी चाहिये । जो प्रियतम के चरणों में आत्मोत्सर्ग कर देता है, उसका अपना कुछ रहता ही नहीं, सब कुछ प्यारे का ही हो जाता है ।

3.      गुरु, वेष और स्थान भाव की प्राप्ति के साधन अवश्य हैं; परंतु अधिकतर इनके द्वारा लोगों को एक प्रकार की संकीर्ण साम्प्रदायिकता ही हाथ लगती है । जिसे स्वयं गोपीभाव की प्राप्ति नहीं हुई, वह दूसरों को कैसे उसकी प्राप्ति करा सकता है और गोपी-भाव-प्राप्त गुरु भी कहाँ मिलेगा । रही वेष की बात, तो प्रियतम की रूचि जाने बिना कैसे निश्चय किया जाय कि वे किस रूप में आपको देखना चाहते हैं । प्रियतम का स्थान ही इस लोक से परे है; इस लोक का वृन्दावन तो केवल उसका प्रतीक है । वह नित्य एवं चिन्मय वृन्दावन तो सर्वत्र है, उसकी उपलब्धि केवल भावमय नेत्रों से ही हो सकती है । भावुक उस प्रियतम के धाम से एक क्षण भी बाहर नहीं रह सकता ।
जय श्री राधे

'श्रीराधा-माधव-चिन्तन' पुस्तक से, पुस्तक कोड- 49, विषय- श्रीगोपांगना- ९-गोपीभावकी प्राप्ति, पृष्ठ-संख्या- ८८१-८८२, गीताप्रेस गोरखपुर

श्री हनुमानप्रसाद जी पोद्दार भाईजी
(( shreeji gau sewa samiti ))

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