वह थकी हो , व्याकुल हो , अधीर हो , अलसाई और कहीँ खोई हो , वह सो जाएं , सो इसलिये सखियाँ .....
और यह मोहन , कैसी लोरी , इनकी तो एक ही संजीवनी है ,......
शब्द , नहीँ , सुनाई नहीँ आते ।
क्या कहा पता नहीँ , सुना वहीँ , जो सुनना ही था ।।।
जागरण तो उधर कीर्ति माँ और जसोदा माँ का है , सम्पूर्ण रात्रि कभी तीव्र ताप , कभी बर्फ से ठंडे ।
क्या रोग है , ???
देवी देवताओं के बस भी नहीँ अब ।
ज्यादा कहने से तो सभी वैद्य बन जाते है , और लली लाल पर कर लेते है मन की कई विधियां ।।।
वह सो सके सो कम्बल भी कारा ही । कम्बल नहीँ , कम्बल नहीँ जानती । श्याम । लिपटे हुए श्याम । सो जाओ ना लली , देखो मोहन संग ही तो है , सो जाओ ।
अहा नेत्र मूंदते ही कृष्ण ही कृष्ण अहा । अहा । जैसे हृदय से सिमट गयी हो । सखियों अब श्वांस को कुछ कस लो , कोई विकल्प ना हो , कोई व्यथा नहीँ , सोने दो उसे । ........ सो जाओ लाडिलि जु ।
विरह , यह क्या होता है , ना कहना कि अभी संग नहीँ , यह उस दिन की तरह कालिन्द में कूद पड़ेगी । संग है । कोई एक सखी तो काले वस्त्र पहन ही आया करो न , किसी पल ना लगे है कि नहीँ ,
मेरे मोहन ,,,, कहाँ है ललिते ?
अरे यें खड़ो तो है , संग री । तू भी न । तनिक देख तो सही ।
ललिते लाडिली के केश की तरफ देख मुस्कुरा देती है , और नन्दनन्दनमोहिनी केश रूप में उनके अलिंगन पा , पुनः भाव रस में खो सी जाती है , अधरों पर भिनी सी मुस्कान छुट वह तो किन्हीं रस तरंगिनियो में होती है
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