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भावदेह 6

भावदेह 6
प्रियप्रियतमौ विजेयताम् ।।
भावदेह बाह्य देह के अनुरूप नहीँ होता । ऐसा भी हो सकता है कि बाहर से जो वृद्ध दिख पड़ते हैं, जिनके केश पक गये हैं, दाँत गिर गये हैं और दृष्टि कमजोर हो गयी है , वें अपने भावदेह में ठीक इसके विपरीत हों । हो सकता है कि उनका भावदेह उज्ज्वल, ज्योतिर्मय, किशोरव्यस्क, सर्वांगसुंदर और माधुर्यमय हो । बाह्यदेह के साथ भावदेह का कोई योग नहीँ होता । यह प्रारम्भिक अवस्था की बात है आगे चलकर दोनों देह में योग हो सकता है , यह स्वतन्त्र विषय है । भाव जैसा है वैसी भावदेह होगी , शुद्ध वात्सल्य हो  , सख्य हो , दास्य या उज्ज्वल (मधुर्यभाव) हो उसी अनुरूप भाव देह होनी है । स्वभाव सिद्ध देह का जैसा स्वभाव है उसी स्वभाव का आश्रय लेकर , अनुसरण कर स्वभाव की साधना चलती है । जो मातृ भाव रखे अपने भगवन् में वह स्पष्ट भावदेह से शिशु आकार हो जाता है । आकृति और प्रकृति परस्पर अनुरूप ही हुआ करती हैं । जो प्रकृतितः अर्थात् स्वभावतः शिशु है , और शिशुभाव से अपनी आराध्या को माँ - माँ कह कर पुकारते हैं , वें आकृति से भी शिशु क्यों नहीँ होंगे ? उनका बाह्य शरीर जरा-जीर्ण होने पर भी उनका भावदेह शिशु ही रहता है, इसमें सन्देह ही क्या हो सकता है । शिशु को जिस प्रकार शिक्षा दी जाती है कि वह किसप्रकार माँ को पुकारे अथवा माँ के साथ व्यवहार करें वह अपने स्वभाव के द्वारा ही नियमित होता है , ठीक उसी प्रकार जो भक्त भावदेह में शिशु है , उसे मातृभक्ति सिखानी नहीँ पड़ती । वह स्वभाव की सन्तान है, स्वभाव ही उसे परिचालित करता है । वह अपने आप जो करेगा , वहीँ उसका भजन है । रागात्मिक्ता भक्ति में बाह्य शास्त्र या बाह्य नियमावली की आवश्यकता नहीँ होती । क्योंकि पूर्व में भी बात हुई सम्बन्ध की नकल सम्भव नहीँ , एक ही माँ के सभी बच्चे एक सा व्यवहार करें एक ही प्रतिक्रिया दे तो रस कैसे परस्पर होगा , स्वभावगत नवीनता ही रस क्षेत्र का श्रृंगार है । सत्यजीत तृषित । whatsapp 89 55 878930 !!!! जयजय श्यामाश्याम ।।।

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