राधे राधे
करहुँ राधा स्याम दरसन।
बार बार जनि मिलिहैं, देखि भरि भरिकै नयन।
तोहि सांची लगन तप भक्ति उनहिं हिंयाँ ल्याई।
तोसो कहि हम दिखावैहों, मन साध पूरन कराई।
जे तोहि निमित्त आये, देखि पुनि-पुनि जी न अघैहौं।
ह्याँ तैं देखि झरोखे तैं 'मँजु' तजैहों उदासी मन सुमन बर खिलैहौं।
देखति राधा स्याम सुंदर कौ।
मन मंदिर बसति सतत पूजित मूरति कौ।
नव-घन-मेघ बर स्यामल सुंदर तन।
सिर मोर मुकुट, बिधुरि लट, कर्ण-मणि-कुण्डल।
कमल सुमन अरु वन पुष्प माल नाभि प्रजंत।
कर कंगन खनकत जउ मुरलि अधर धरत।
तन पीताम्बर कटि करधनी 'मँजु' नुपुर शब्द रसाल।
मुँदे नेत्र भाव-विह्वल, धक राधा-उर कंठ लौं लै गयौ उछाल।
(डाॅ.मँजु गुप्ता)
परस्पर दोऊ चकोर, दोऊ चंदा।
दोऊ चातक, दोऊ स्वाति, दोऊ घन, दोऊ दामिनी अमंदा।
दोऊ अरविंद,दोऊ अलि लंपट, दोऊ लोहा, दोऊ चुम्बक।
दोऊ आसिक महबूब दोऊ मिलि, जुरे जुराफा अंबक।
दोऊ मेघ, दोऊ मोर, दोऊ मृग, दोऊ राग-रस भीने।
दोऊ मनि विसद, दोऊ बर पन्नग, दोऊ वारि, दोऊ मीने
भगवतरसिक बिहारिनी प्यारी, रसिक बिहारी प्यारे।
दोऊ मुख देखि जियत, अधरामृत पियत, होता नहीं न्यारे।
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