दोउन न दिखत सखी एकहु ही मैं देखूँ
बरसत प्रेम या नैनन पे गिरत सब भेदन दृगन के
एक ही रंग ,
एक ही बदन ,
एक ही केलि ,
एक ही रूप और भाष
एक शब्द
एक समय उचारे
निरखे अपलक अलिन
दोउन अब एक रूप री
आज न बनी बात सखी
पिया देखे ज्यो ही लली
मुख चन्द्र सु नेना न हिली
देखत देखत रैन कबहुँ बीती
हम अलिन की लाज लाडिली
उलझी इक डोर ज्यो हरत हरि
Comments
Post a Comment