भावदेह 5
प्रियप्रियतमौ विजेयताम् ।।
भावदेह प्राकृत देह के साथ जुडी अनुभूत् होने पर भी प्राकृत देह के अनुरूप नहीँ होती । (भावदेह और प्राकृत देह में स्वरूप और अवस्थागत भेद हो सकते है) प्राकृत देह में जिस समय कृत्रिम साधन होते रहते है उस समय भाव का विकास नहीँ होता । इसलिए इस अवस्था में बाह्य शास्त्रवाक्य , बाह्य गुरुवाक्य और तद् अनुरूप महापुरुषों के वचन और उन अनुसार विधि-निषेध सन्दर्भ और धर्म को मानकर चलना होता है । ....... परन्तु स्वभाव के विकास होने पर बाहर से किसी प्रकार की शिक्षा ग्रहण करने की आवश्यकता नहीँ रहती । यहाँ स्व स्वभाव ही पथ होता है , आजकल कहा गया भौतिक स्वभाव नहीँ , वह मूल हमारा स्वभाव जो नाम साधना से फलित होगा , या कहे वह सम्बन्ध जो ईश्वर से प्रदत्त हुआ , वहीँ मूल स्वरूप होगा । उस समय स्वभाव ही प्रेरक होता है । उस समय वह स्वभाव ही गुरु , स्वभाव ही शास्त्र तथा स्वभाव का निर्देश ही विधि और निषेध होता है । बाहरी साधन स्वभाव की जागृति हेतु ही है और वह स्वभाव स्वयं की चाह भर नहीँ भगवत् चाह से है । इस अवस्था में बाहर से कोई नियंत्रण करने वाला नहीँ रहता । गम्भीर आंतरिक राज्य की नीरवता और दृष्टि में बाह्य जगत की किसी वस्तु का कोई स्थान नहीँ होता । तब भी वहाँ भी कोई शक्ति अन्तर्यामीरूप से भीतर रहकर भक्त को परिचालित करती है । इसी को स्वभाव कहते हैं । क्रमशः ....... सत्यजीत तृषित ।। व्हाट्स एप्प नम्बर -- 89 55 878930 ।। जय जय श्यामाश्याम ।।
प्रथम सीस अरपन करै, पाछै करै प्रवेश ।
ऐसे प्रेमी सुजन को, है प्रवेश यहि देश ।।
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