भक्ति सोपान - आसक्ति
जय जय श्यामाश्याम जी , पहले श्रद्धा , फिर साधू संग , उसके बाद भजनक्रिया , और उसके पश्चात अनर्थनिवृत्ति , फिर निष्ठा , उसके बाद रुचि , उसके पश्चात् आसक्ति , उसके बाद भाव या रति फिर प्रेम का उदय होता है ।
प्रेम के भीे ऊपर के स्तर है , स्नेह , मान , प्रणय ,राग , अनुराग और महाभाव ।
अभी "आसक्ति" को देखते है -
रुचि प्रगाढ़ होने पर आसक्ति का रूप धारण करती है । आसक्ति की अवस्था में चित्त भजन में उतना आसक्त नहीँ होता , जितना भजनीय विषय श्री भगवान में आसक्त होता है । रुचि का प्रधान विषय भजन है , आसक्ति का प्रधान विषय भगवान हैं । आसक्ति में चित्त ऐसा निर्मल हो जाता है कि उसमें प्रतिबिम्बित होने वाले भगवान सहसा दीखते हुए से जान पड़ते है ।
निष्ठा की अवस्था में मन को विषयों से नाम-रूप-गुण-लीला के चिंतन में लगाने की चेष्टा करनी पड़ती है , पर आसक्ति की अवस्था में मन अपने आप भगवान में लगा रहता है । निष्ठा की अवस्था में भगवान का चिंतन करते करते मन कब फिसलकर विषयों का चिंतन करने लग जाता है , उस साधक को पता भी नहीँ चलता । उसी प्रकार आसक्ति की अवस्था में मन कब विषयों से निकलकर भगवत् चिंतन करने लग जाता है , उसका साधक को पता नहीँ चलता ।
आसक्ति की अवस्था में भगवान भक्त के मन और बुद्धि पर ऐसा छाये रहते है कि उसका हावभाव , बोलचाल , आहार-विहार आदि सब कुछ असंलग्न और असंयत जैसा प्रतीत होता है , यदि उसे भगवत्-प्रेम और भगवान के चरणारविन्द प्राप्त करने की तीव्र उत्कंठा के सन्दर्भ में न देखा जाये । उसे देख मित्र आदि कहते है - इसकी बुद्धि ठीक नहीँ है । मीमांसकगण कहते है -- यह मुर्ख है ।
वेदांती कहते है -- यह भ्रांत है ।। और कर्मी गण कहते है -- यह भ्रष्ट और आलसी है । पर भक्त गण कहते है -- इसने महासार वस्तु को पा लिया है । ऐसी होती है भगवत् आसक्ति । सत्यजीत तृषित । राधेमहारानी जु सभी को प्रेम मय नेह में समेट लें , इसी आस से ।।।
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