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प्रेमी भक्त के लक्षण , राधा बाबा

प्रेमी भक्तों के लक्षण : ‌_________श्री राधा विजयते नमः
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श्री नारद जी ने अपने भक्तिसूत्र के 48 वे सूत्र में कहा है
"य: कर्मफलं त्यजति, कर्माणि सन्यसति, ततो निर्द्वन्द्वो भवति "

यहां श्री नारद जी प्रेमी भक्तों के लक्षण बता रहे हैं!
भगवान का प्रेमी भक्त जो कुछ भी करता है, वह भगवान के लिये ही करता है!
उसकी न कर्म में आसक्ति है ना कर्म फल में ! वह तो यंत्रवत है, परंतु जहां तक उसे यह स्मरण रहता है कि मैं यंत्र हूं, तब तक वह कर्म फल का त्यागी तो होता है, कर्म  का त्यागी नही हो पाता! कर्म का त्यागी प्रेमी संत तभी होगा, जब वह अपने शरीर एवं संसार को सर्वथा विस्मृत कर जायेगा ! जगत एवं शरीर की स्मृति रहते भगवान मे पूर्ण तल्लीनता कहां हुई??

प्रेमी भक्त को जब आठो‌‌- पहर, रात-दिवस का भी ज्ञान नहीं रहता , उसके ध्यान पथ से भगवान जब एक क्षण के लिये भी नहीं हटते, उस स्थिती मे उसे पता ही नही रहता कि मैं शरीर हूं, मेरा शरीर एवं कोई संसार भी है और मुझसे कोई कर्म हो रहा है! उसके मन बुधि तो सम्पूर्णतया भगवान मे डूब जाते हैं और उस प्राकृत अहंकार के स्थान पर एक भाव जगत का भागवती, अप्राकृत अहंकार उदय हो जाता है !

उस अप्राकृत भागवती अहंकार की प्राप्ति के साथ ही उस प्रेमी भक्त का अप्राकृत भाव-जगत प्रारंभ हो जाता है,तब उस प्रेमी संत को ना तो प्राकृत जगत की स्मृति ही रहती है,एवं ना ही उसे प्राकृत काल, दिवस-रात का भान होता है!
उस स्थिति में जैसे हम पूर्वजन्म की पूर्णतया विस्मृति कर देते हैं, उस महाकृपापात्र प्रेमी भक्त की मन-बुधि इस प्राकृत माया जगत की पूर्णतया विस्मृति कर देती है! वह भगवान और भागवती लीला जगत से ऐसे एक हो जाता है, जैसे एक बूंद समुंद्र में गिरकर समुद्र से एक-मेक हो जाये ! वह नित्य भगतलीला का अप्राकृत पात्र बन जाता है

उस स्थिति का उल्लेख 48वें सूत्र मे नारद जी कर रहे है कि भगत समग्र कर्मो  का स्वरुपत: त्यागकर द्वंद्व रहित भगवान का यंत्र हो जाता है,तब उस भक्त के अंत:करण में भगवान स्वयं विराजित हुए उसके प्रारब्ध पूरे होने तक  संगोपान कर्म करने लगते हैं!!

श्री राधे ,, आप सब को श्री राधा नाम रस की लगन लगी रहे
जय जय  श्री राधे

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