Skip to main content

अबोध और शरणागति

अबोध

अपनत्व और अनन्यता जब तक शिशु में रही , उसकी स्थिति योगियों , प्रेमियों सी रही । साधक नहीँ सिद्ध अवस्था । आत्मा भी , देह भी पर तब कारण देह का विकास नहीँ होने से दिव्यतम प्रकाश , त्याग ऐसा की केवल माता के दूध से जीवन का सञ्चालन । क्रिया ऐसी जैसे योग में भी न हो , बिलकुल स्लो मोशन । और निद्रा ऐसी जैसे स्वरूप ध्यान या समाधि । उज्ज्वलता , छटा ऐसी की जिसने मन्दिरों में भी नमन ना किया हो एक बार तो भीतर ही सही वह भी श्रद्धा से भर जाएं । सकरात्मक्ता ऐसी की कुटिल या नकरात्म चित् भी शिशु को गोद में लें लें तो वात्सल्य से भर जाएं , निर्भरता ऐसी की अपने प्राण ही निकल जाएं पर माँ पर निर्भर , मल में सना रहे पर चेष्टा माँ ही करें , हालाँकि इन सब को शिशु की दयनीयता कह प्रदर्शित किया जाता है , परन्तु मुझे उससे विशुद्ध अध्यात्म नहीँ दीखता । दस दिन के आस पास का शिशु गन्ध से माँ को जानने लगता है , फिर शब्द से , समझता नहीँ पर शब्द में निहित भाव उसे अनिवार्य सुरक्षा देते है , कुछ दूर माँ हो तो वह व्यथित हो उठता है , काश ऐसा भगवत् सम्बन्ध हो सके , पूर्ण निर्भरता । मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो आजीवन निर्भर रहता है , पर समझ नहीँ पाता वस्तुतः उसे निर्भर होना किस पर है । बोध इतना आवश्यक है कि मैं अबोध हूँ , मुझे अपने भगवान की गोद का बोध नहीँ , अतः अबोध हूँ , और मेरा बोध भी अब उन्ही को सौंपता हूँ , नन्हा शिशु के संग जो किया जाये वह उसे दर्द ही देता हो , अथवा वह रोता रहे पर माँ और परिजन करते हित है , शिशु रोता रहता है , कारण बदलते रहते है , पूरा ना हो तो अर्थ है माँग पूरी ना हो यहीँ भगवान चाहते है , जैसे शिशु के अनावश्यक मांग या रोने की परवाह किये बिना परिजन हित चाहते है । जीवन भर के साधन आदि ऐसी आभा और आकर्षण का विकास क्यों नहीँ कर सकते जैसा शिशु रूप में रहा , यहीँ जीवन का उत्तर है । जीवन को सदा उसी भावना से जिया जा सकता , वहीँ बालपन , वहीँ शिशुपन अपने प्रभु के प्रति शरण बस , तब स्वतः रस बढ़ता , घटता नहीँ । एक और बात अधिकतम उतनी ही शक्ति का विकास हो सकता है जितना बाल रूप में प्रकृति से मिला , जो नाना विचारों धारणाओं से छुट गया । भक्त कह लो , या नित्य योग में निहित सिद्ध होना उसे वैसा ही है जैसा आया था , तब ही वह सफल है । शरीर का स्वरूप बदले तो बदले अन्तस् वैसा ही हो । आज शायद आश्चर्य हो कि कभी हमें देख किन्हीं को भगवत् स्मृति हो उठती थी । क्यों ? एक चीज़ का तब उदय ना हुआ था , अहंकार और जगत का आभास , जगत् का बोध । जगत जितना जाना स्वबोध छुट गया । और ईश्वर हेतु तो अबोध स्वीकारना ही पूर्ण बोध है । विचारों के जाल ने हमारा मूल स्वरूप बिगाड़ दिया । ईश्वर कहते है वैसे हो सके जैसा तुम्हें जगत में भेजा तो तुम सफल हो । समस्त अभिनय में मूल रह गया , हमने ईश्वर को झुठलाया है , मुझे लगता है मनुष्य जैसा पैदा हुआ वह पूर्ण है , वह संग से ढल जाता है , भाषा आदि सब जगत देता है , अतः जैसा वह आया "निर्विकल्प" भाषा-देश-काल-स्थितियों से अनभिज्ञ वहीँ पुनः होना है और वहीँ मानव का मूल धर्म है । आज विद्यालय में सिखाया वह कम और अनुभव में आई बात बालक जल्दी जीवन में उतारता है , हर वक्त सिखने की ललक । जिसने जगत को एक क्षण ना देखा उनके हाव भाव देख अनुमान लग सकता है कि हमारा उठना बैठना सब कॉपी पेस्ट है और अपने लिए नहीँ । जिन्होंने जगत नहीँ देखा वह कभी सोचते नहीँ अगर सिखाया ना जाएं कि यहाँ बनावट अनिवार्य है , आवरण अनिवार्य है , उनके भोजन करने के तरीके को देख कर ही भीतर शान्ति उतरती है , भले हम बाहर इसे गलत सिद्ध कर दे । पहले जीवन भर एक बालक रहता था भीतर वह मरता नहीँ था , आज बालक को बालक नहीँ हम रहने देते । ईश्वर माँ है , उनके लिए तो हम सदा शिशु ही है , कुछ हरकतें उन्हें भाँति होगी , कुछ वह भा सके ऐसा अभिनय कर लेते होंगे । अपने शिशु की किसी हरकत को वह गलत तो नहीँ कहते , परन्तु शिशु का हित स्वयं को माँ को सौपने में ही है , इस में ज़रा भी अमंगल नहीँ होगा कारण माँ स्वहित के बदले भी शिशु का ही हित सोचती है । माँ अच्छा खाती है ताकि बालक को अच्छा दूध मिले , अपने लिए नहीँ , अपने बालक के लिए । और जब तक अपनी देह में शिशु हेतु दूध की भावना उसमें होती है माँ का अपना सौंदर्य भी निखरता है , कारण स्वहित में रस नहीँ , आनन्द ही तत्सुख में है और यहीँ जीवन की औषधि ।
पुनः पिछले भाव ....
किसी का कहा सच भले ना हो आपने जो जी लिया वो तो सच है ही क्या बचपन जीवन में सबसे सुंदर हिस्सा नहीँ , वह समय सदा भाता है , भले अभाव रहे हो , कारण अबोधता । बेफ़िक्री ।
अनुभुत् करियें ...
जन्म से कोई ऐसा साथ जो सदा रहा हो ... जन्म से पहले भी रहा हो मृत्यु के बाद भी रहेगा , केवल ईश्वर वह अपने शिशु को अकेला छोड़ ही नहीँ सकते । सदा निगाह गढाये है , ख्याल है उन्हें इतना , फिर अपने को ही सोचना तो गलत हुआ न । अपने उन वात्सल्य मय भगवान को विचारा जाता तो वह दौड़े आते ।
हम आये जब यहाँ कैसे थे ...क्या शंकायें थी ? क्या बोध था ? क्या हमें कुछ आता था ? फिर किसने
हमें जीवन हेतु दूध पीना सिखाया | किसने जन्म से पुर्व सभी व्यवस्था की , अनुकूल संग दिए ।
कितनी कांति थी तब ... और सौन्दर्य | फिर कांति - सौन्दर्य - अबोधता कम होती गई | कई रंग चढ गये ...जिस रंग में आये थे वो छुट गया |... प्रयासों से नहीं निश्चलता से पाया जा सकता है क्योंकि वहीँ हम लाये थे ... बोध से नहीं ...अबोधता से , क्यों कि अबोध ही हम है और रहेगें भी ।
आप को चलना आता ही ना हो तो माँ आपके साथ है ... हम खुद चलने लगे साथ छुटता गया |
शिशु को देखो ... जैसे छु कर आया  हो प्रभु को , हैं ना | इतनी निर्मलता चाहिये |इतनी कोमलता , इतनी सादगी | इतनी सच्चाई ...
दिये थे भी प्रभु यें सब | पर ...हम समझ ना सकें | अब वहीं सब चाहिये ... कुछ नया नहीं कर रहे ,
उनके लिये , वहीं करना है जो लाये थे | ठीक वहीं | जितना शिशुत्व आया | उतना होने पर पा सकेँगे उन्हें |
कितना सरल सुत्र है ...
जैसे जन्में वैसे ही मरना है ... बीच के जाल में ऐसे उलझे की छुटते गये | पहले वस्त्र पहन लो फिर हटा दो ...कोई एहसान नहीं हुआ उन पर ...उन्हें तो ठीक वही चाहिये , वहीं बाल
स्वरुप | सब नया सा | वहीँ आत्मा का मूल रूप है , शेष तो अभिनय उसने रट लिए , आत्मा थी इतनी निश्चल , शिशु में देहाभास नहीँ , आत्म रूप ही प्रगट है अतः स्वतः रस और आनन्द प्रगट ही है ।
उनके होना चाहते है तो एक चीज पकड लें अबोधता | बोध उन्हें है उन्हें ही रहे , माँ जाने सब कब क्या पहनना , कब क्या खाना पीना , अहित तो करेगी नहीँ |हम अबोध भले | पकडा देनी है डोर |
जहाँ ले गये बेहतर ही होगा | ख़ुद  पर बडा विश्वास दिखा कर डुब गये है | उन पर कर के देखना है ...
शिशु की हरकते देखिये और सीखिये |जितना छोटा बच्चा हुआ उतना सरल प्रभुत्व है उसमें |
१० माह के बच्चे को अपनी सबसे जरुरी किताब दे दो | एक पैन दे दो ...उसे उस किताब की सौन्दर्यता , गहराईसे कोई लेना देना नहीं ... वो तो टेडी-मेडी लकीरे खेच डालेगा | बिगाड देगा | पर उसे लगेगा की किताब अब संजी है |
अब सही स्वरुप पाई है ...
यही हम करते है ... ईश्वर ने संसार थमा दिया सब सुन्दर था पहाड , जंगल , नदी नाले सब हसीन् और सही तरह से सही स्वरुप में थे | हमें बोध मिला लग गये हर तरह से टेडी - मेडी लकीरों में ...बच्चा कुछ जरुरी किताब बिगाडे तो उसे बिगाडने को वापिस ना मिलें हम उसे डांटे ...पर प्रभु बार - बार सारी कुदरत थमा देते है बिन मांगें |... पर इन्सान् सदा गरीब | कुछ नहीं उसके पास ...सांसें ... मिली है | हमारी नहीं उनकी है  | हमारे बस में होता तो कभी रोकते ही ना | मुफ्त की है ... शुक्रिया नहीं निकलता | कृत्रिम सांसे एक दिन में लाखों खर्च करवा देगी वो भी बिस्तर पर ... हिल ना सकोगें , सोचो कितना कुछ मिला है मुफ्त | एक दिन सांसें खरीदनी पडी तब पता होगा ... ईश्वर क्या है ?
तब भी इंसान ऐसे मांगता है उनसे कि कि कोई उसी का चैक बाउन्स हो गया हो ... उनकी चीज है सब
कभी भी वो लें सकते है ... हमारा कोई किराया जमा नहीं है | सब उनका ही है | अबोधता जानें ... 
क्षमा और धन्यवाद कहते रहे …
अपनी अबोधता से पता होगा | सब कुछ उनसे है ... और वह अपने , अपनों को कौन नही जानता | मैं गलत हो  सकता हूँ , सब गलत हो सकते है ,विधियाँ गलत हो सकती है ... सुना-पढा भी गलत हो सकता है पर मेरे प्रभु कभी गलत नहीं हो सकते ... कभी गलत नहीं होते | ना होंगें
जो नहीं मांग रहे उसे प्रभु हाथों सेखिला रहे है ... ऐसी लाखों योनियाँ है खुद देखियें | सत्यजीतई "तृषित" !
मेरा कुछ नहीँ , मुझे कुछ नहीँ चाहिए , सब आपका ही है , आपने दिया वो सब लौटाना ही है , मेरे कुछ अपने है तो आप । खिलौनों संग नहीँ अपनी माँ संग ही सुख की नींद आती है ।

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात