🌿🌸 विरह - माधुरी 🌸🌿
हो रसिया ! कस सुरति बिसारी।
लोक, वेद, कुल कानि आनि सब, तजि आई पिय शरण तिहारी।
मग जोहत अँखियां पथराईं, हारी हेरि बिपिन बनवारी।
तारे गिनत जात सब यामिनि, पलक एक युग सम लग भारी।
निर्मोही ! कस मोहिं मोहि अब, तड़पावत बेपीर मुरारी।
जियन न देत, लेत नहि प्रानहुँ, दूहूँ भाँति अति विपति हमारी।
अब 'कृपालु' मो कहँ तजि माधव, कूबरि वरि निज करि उर धारी।
भावार्थ -
(एक विरहिणी प्रियतम श्यामसुन्दर के वियोग में विलाप करती हुई कहती है)
हे रसिक शिरोमणि श्यामसुन्दर ! तुमने मेरी सुधि क्यों भुला दी है ?
मैं तो लोक, वेद एवं कुल की मर्यादा आदि सब कुछ छोड़कर तुम्हारी शरण में आयी हूँ।
हे श्यामसुन्दर ! तुम्हारी प्रतीक्षा करते करते मेरी आँखें पथरा गयीं एवं वन वन में तुम्हे ढूँढकर में हार गयी।
हे प्रियतम ! तुम्हारे बिना तारे गिन गिनकर सारी रात बिताती हूँ एवं एक एक क्षण युग के समान भारी लगता है।
हे निष्ठुर श्यामसुन्दर ! तुमने मुझे मोहित करके अब क्यों तड़पाने की ठानी है ?
अरे बेपीर ! तू न तो चैन से जीने देता है और ऩ प्राण ही लेता है। दोनो ही प्रकार से मुझे महान कष्ट है।
'श्री कृपालु जी' कहते हैं कि अब तो श्यामसुन्दर ने मुझे छोड़कर कुब्जा का वरण करके एवं उसे अपनी बनाकर अपने हृदय में रख लिया है, इससे मुझे भूल गये।
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