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नहीँ , पूजा हेतु नहीँ आई , कविता ।।

नहीँ , पूजा हेतु नहीँ आई
थाल तो यूँ ही सजा ही लाई

कुछ देर न मुस्कुराओ
तब कुछ कहने आई

सदा देते हो बात टाल
देखते हो खुद यूँ
होती शर्म सार

लो मुझे फिर उलझाते हो
जो कहने आई बिसराते हो

याद है आज तुम्हें फिर क्यों आई
क्या थी वो बात जो हलक तक ना आई

ओह !
स्मरण लौटा धुंध लिए
यूँ रहे सामने तो असम्भव ही पिय

कर लूँ नैना मूँद
फिर कह दूँ सब
संग हो नयन बूँद

क्यों इतना भी सताते हो
क्यों यूँ बसते हो
सब भुलाते हो

क्यों फिर फिर छिप जाते हो
क्यों अब नयन जल पी जाते हो

जब दहकाये तब क्या था रोका
फिर अब किसने है तुम्हें टोका

क्यों जलाया
फिर भिगाया
गिला कर फिर फिर जलाया
अब जब तक भस्म न होऊँगी
तुम यूँ ही खेल खेलोगें

देखो पिया
मुझे अब जला ही दो
एक दाह सी उठा ही दो
रक्त है अब भी क्यों
फटती नहीँ धमनियां क्यों

जब तक तनिक भी
शीत है भीतर
मेरा तुमसे झगड़ा है

अब क्यों मुस्कुरा रहे हो
पहन लो माला
थाल देख ललचा रहे हो

क्या तुमने कुछ खाया है
कुछ खाओं ना
जीवन ने तो हाहाकार मचाया है

देखो ऐसे मुझे जलाओ पिया
जैसे दीप जलाई हूँ
और यूँ महक सी बन जाओ पिया
जैसे धुप महकाई हूँ

हँसते क्यों हो ?
नहीँ , यें कोई पूजन नहीँ
झगड़ा है मेरा
क्यों बन्धन नहीँ

इतना जो हँसते रहते हो
भीतर भय सा लगता है
मेरे नैनों का विश्वास नहीँ
कहीँ नज़र दोष तो नहीँ बनता है
आरती नहीँ कर रही हूँ अब
थाल दीप घुमा रही हूँ
कहती हूँ यूँ दहका दो पिया

और ऐसे न शंख घुमा
जल ना छिड़को पिया

क्यों इतना हँसते हो
थाली भरी कैसे ले कर जाती
केवल रुठने कैसे आती

हाथ में नीरजपुष्प लिए कहती हूँ
मुझे प्रेम अगन में जला दो पिया
जला दो पिया
जला दो पिया

दहक लगा
शीत हटा लो पिया

लो सर पटक कर कहती हूँ
क्या करोगें प्रेम पूछती हूँ ?

ना बोलोगें मर जाऊँगी
कुछ कहो तो यही बस जाऊँगी

हाय ! मैं आई ही क्यों ?
आज दिन शुभ नहीँ
कल फिर आऊँगी
रुठने का मुहूर्त हो तब ही आऊँगी ....
----  सत्यजीत तृषित ।।

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