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भावदेह 4

भावदेह 4 --
प्रियाप्रियतमौ विजेयताम् ।।
जीव कर्म कर सकता है , परन्तु भाव को प्राप्त नहीँ कर सकता , क्योंकि वह स्वरूपतः भावमय नहीँ है । कर्म करते करते भाव जगत् से उसमें भाव का अनुप्रवेश हुआ करता है । इस प्रकार भाव का उदय भावजगत की प्रेरणा से होता है । मायिक शरीर भावग्रहण के लिए उपयोगी नहीँ होता , इसलिए हमारी देह में भाव का आविर्भाव नहीँ होता । भाव का आविर्भाव होता है भाव धारण करने  योग्य आधार में । यह आधार शुद्ध देह या भावदेह के नाम से परिचित है । वर्तमान में अशुद्ध देह है जो कि साधना के प्रभाव से शुद्ध होकर अंत  में भावदेह के रूप में प्रकट होता है । पाञ्चभौतिक प्राकृत देह का अवलम्बन कर यदि भाव का विकास हो तो भावदेह मिश्ररूप से प्रगट हो सकता है । इस अवस्था में वह अपने पृथक् स्वरूप में कार्य करता रहता है , यहाँ से भजन साधना का रस बढ़ता है , दृश्य जगत को अदृश्य साधना समझ नहीँ आती , भावदेह नित्य अपने स्वरूप में सेवा में होती है । भाव का विकास के साथ साथ प्राकृत देह का त्याग होने पर भी विशुद्ध भावदेह भावजगत् में विराजित होता है और वहाँ अपना कार्य करता रहता है । बहुतों बार भावदेह आधुनिकों को समझ नहीँ आते और वह इसे मल्टी पर्सनलेटि डिसऑडर जैसा मानसिक रोग समझते है । यहाँ मन का रोग नहीँ बल्कि पूर्ण स्वस्थता है , (स्वयम् के मूल स्वरूप स्थित में होना ही "स्वस्थ" है ) । इसे और सरल करुँ तो हमारी कारण देह (मन, बुद्धि, अहंकार ) बहती रहती है , आज पूछा जाये आप कहाँ हो तो इसका उत्तर किसी के पास नहीँ होगा ? क्योंकि मन बह रहा है कहाँ से कहाँ ? कहाँ का कहाँ चला जाता है , कहीँ नहीँ टिकता , एक किरण सी बन गई है सभी जन्मों की मन उस किरण में कही भी पहुँच जाता है , सभी जन्म नहीँ तो वर्तमान जन्म के होश आने तक जाता रहता है और आज से आगे भी भविष्य की कल्पना में बहता है जहाँ स्पष्ट नहीँ देख सकता धुंधला पन सा । पेन में जैसे रिफिल होती है ऐसे , पर तरल , कभी कहाँ - कभी कहाँ ? मन स्वयं को एक रेखा मानता है , हम भी । हम एक समय को नहीँ जी पा रहे बैठे कहीँ ध्यान कहीँ एक रेखा सी खींच जाती है । इस रेखा को बिंदु पर होना है , भावदेह में भगवान का नित्य धाम ही वह बिंदु है , वहाँ से वह सब बाहर आता ही नहीँ , बिना मन यहाँ भौतिक क्रियाएं विचित्र सम हो सकती है , कभी वहीँ से यहाँ कोई भगवत् रस हो तो वह लेने लगता है । भौतिक जीवन कीचड़ में भी हो तब भी भावदेह शुद्ध है , भावदेह जीव की क्षमता से नहीँ ईश्वर की कृपा से है । अतः वह पाप पूण्य से मुक्त है , और वहीँ भावदेह के रूप में जो सेवा साधना है वहीँ वास्तविक भक्ति है । सद् गुरु और ईश्वर जीव की बहती चेतना को एकत्र कर भावजगत् में छोड़ देते है । इससे मन नहीँ भटकता उसे वहाँ से सुंदर फिर कुछ भौतिक में मिलता ही नहीँ , अतः स्वतः अनुराग , स्वतः वैराग्य । होता यह साधना की एक  अवस्था बाद भगवत् और सद् गुरु कृपा से है , परन्तु भीतर से चाह ही न हो तो ना तो गुरु अपनी और से चाहेँगे न प्रत्यक्ष में भगवान (सभी चाह है उन्ही की , अपनी चाह से भगवत् पथ ही नहीँ होता ), हाँ कुछ अपवाद हो सकते है  , जहाँ अपनी चाह से गुरु और ईश्वर ने भावदेह दे दिया हो ।
साधन करते करते भावदेह की प्राप्ति से पहले मृत्यु हो जाएं तो भावजगत् में गति प्राप्त नहीँ होती है । जब भाव का उदय हो तब समझना चाहिए भावदेह कार्य कर रहा है (कथित भाव और उदय हुए भाव में भेद है , उदय हुआ भाव , आश्चर्य सा होगा , शारीरिक स्थिति रोगी सी हो सकती है और भीतर गहरा अकथनिय रस, परन्तु भगवान ने कृपा कर भाव निरूपण किया तो यह एक अद्भुत रस होगा , अर्जित और प्राप्त भाव से सर्वथा भिन्न, यह बात इसलिये कि पथ ज़ारी रहे , यहाँ कहीँ विराम नहीँ ..... )
भावदेह के कार्य करते समय प्राकृत देह जड़वत् , स्थिर , या निःसार रुप सा पड़ा रहता है । भाव की तीव्रता में यह अवश्य ही समझ आ जाता है । यदि भाव उतना तीव्र न हो तो प्राकृत देह में उसका उतना प्रभाव देखने में नहीँ आता । परन्तु वह अपने स्वरूप में ठीक ठीक कार्य करता रहता है , इसमे कोई सन्देह नहीँ।  -- क्रमशः -- सत्यजीत तृषित । 89 55 878930  जय जय श्यामाश्याम ।।

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