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क्या अर्पण करुँ

क्या अर्पण करुँ ?

मन्दिर जा रहा हूँ , क्या लें जाऊँ , माला आदि । प्रसाद आदि । क्या आखिर ?
शास्त्र तो कहता है खाली ना जाना , भगवान है ।
वस्तुतः क्या हम खाली जा सकते है । सम्भवतः मनुष्य है और खाली भी यें कुछ दुर्लभ है । मानव नित्य भरा है । भरा ना हो तो वह परम् के दर पर दस्तक ही ना दें । हम खाली होने ही तो जाते है , जो जितना खाली हो सका उतना सौभाग्य ।।।
ना जाने क्यों मेरी बात विचित्र होती है पर होती उनकी ही है तो विचित्र होने पर भी , साहस का मन होता है , क्षमा सहित एक और दुस्साहस ।।।
..... अगर आप भगवत् धाम , दर्शन जाते है । और कोई माला , प्रसाद , दक्षिणा , अर्पण करते है । अपनी क्षमता अनुरूप सभी ही करते है । है न , कोई कहे कि खाली उनसे मिल आइये , तो सब अजीब लगेगा , परन्तु एक विनय कभी जीवन में खाली हाथ ना गये तो एक बार जरूर जाएं , कोई द्रव्य - पदार्थ - वस्तु आदि ना हो । जिसे हम धन कहते है , उसे भगवान धन नहीँ समझते , इसका पता लगता है सन्तों से , उनके अपनों से लगता है जिनके लिए धन का कोई मूल्य नहीँ , कोई वस्तु धन सन्तों को लगी तो वह है भगवत् नाम , बस ।
वस्तु नहीँ मन लें कर एक बार जाएं । आप अगर वस्तु धन लेकर गए है और एक बार निर्विकल्प - खाली चले गए तो , तब चमत्कार होंगे ।
सबसे बड़ा चमत्कार है और साधन है अहम् का नाश , अहम् की बदरिया हटी नीलाम्बर रूपी अनन्त परब्रह्म सामने , गोविन्द सामने ।
अगर इस लेख को पढ़ आप किसी भी बहाने से एक बार भी वस्तु , उपचार हीन ना गए तो तब वें भी क्या कर सकेंगे । आपको भगवान चाहिए ना , वहीँ उसी दर पर जहाँ अब तक आप गए वहीँ जाएं खाली हाथ , एक ही बार भले ।  जितना खाली होंगे उतना रस , मन ही चाहिए उन्हें , परन्तु माखन सा मन , अर्पण भी नहीँ करना , उन्हें दिया तो पसन्द ही नहीँ , नन्द महल भरे है माखन से परन्तु वह चुराना जानते है बस । हमारे पास निर्मल मन हुआ कि वह चुरा ही लेंगे , देना भी नहीँ । और यें घटना वहीँ घटेगी जहाँ अब तक हम गए ।
वस्तु से हम जुड़ जाते है , वहाँ भगवान की भी स्मृति गौण अपनी वस्तु की अधिक रहती है । कथित तौर पर यें सेवा है , परन्तु जिस सेवा में केवल अहम् न हो वहीँ स्वीकार्य है । अपनी वस्तु , अपनी माला के लिए लोग पूर्व में धारण की और विशेष माला भी उतरवाना चाहते है , विनय भी करते है प्रभु से , भगवन् मेरी माला भी धारण करिये ना, यें मेरा पन है , सूक्ष्म मेरापन । भगवान सजे हो तो बिगाड़ना ही पड़े पर माला पुष्प आदि पहनी जाएं , किसी की सेवा पहुँचती है तो अहम् पुष्ट हो जाता है , यहाँ सात्विक अहम् नही है । ना पहुँचे तो घोर निराश । अपनी वस्तु की उपेक्षा में भगवत् साक्षात्कार , दर्शन , वार्ता सब भूल ही जाता है ।
मान लो आपने पुष्प लिया अर्पण किया , हुआ तो हर्ष होगा , ना हुआ उसे कहीँ पटक दिया गया तो लगेगा आपके पुष्प को नहीँ आपको ही फेंक दिया हो । तब पीड़ा होगी , जबकि आनन्द तो तब भी होना चाहिए जब आपकी वस्तु की उपेक्षा हो , आनन्द नित्य है , कम ज्यादा नहीँ होता ।
वस्तु किसी की भी धारण की हो , भगवान तो हमारे है ना , हमारी वस्तु नहीँ , भगवान ही हो , जिस की भी सेवा हो सुंदर लगे , मेरा पन ना जागे । हां , वह अवसर दे तो रस होगा , परन्तु उनका अवसर भी अद्भुत होगा , वह अवसर देगें , उसे जो साधन हीन ही हो , वह उसके चित् में कहेगे कि मुझे पोशाक पहनाओ ना ... जिसका सामर्थ्य ही ना हो , तब ही तो रस बनेगा ।
अब तक द्रव्य वस्तु आदि से रिझाया तो एक बार खाली जाये , कुछ ना अर्पण हो , क्योंकि वस्तुतः हमको उन्होंने ही दिया , हम उन्हें क्या दे । सब उनका ही है , सब अतः कुछ नहीँ । सब उनका माना जाये , उनका मान ही वहन हो । भगवान को देने के लिए पहले अपना होना ज्ञात होता है , हाँ सम्पन्न है और आभास हुआ सब उनका ही है तो आवश्यकता या गुरू-सन्त आदेश से सब अर्पण कर अगले दिन उसी चौखट पर भिक्षा मांगी जाएं , कंकर भी शेष ना हो तब ।
वरन् उनका प्रसाद ही है सब , जीवन , तन , मन , सब सम्पत्ति आदि आदि । और समान है , ऐसा नहीँ किसी को कई फार्म हॉउस किसी को कुछ नहीँ ,ऐसा नहीँ सब समान है , वस्तुओं में हम कृपा ढूंढ खुश हो जाते है , अधिक सुविधा होने पर मुझे तो व्यक्तिगत पीड़ा हो जाती है , कि सरकार नाराज है क्या ? कही संसार में अटकाना तो नहीँ चाहते , भोग-विलास के विस्तार के लिए भगवान नहीँ । आत्मसुख , अन्तः सुख के लिए है ।
कभी खाली हाथ ना गए तो शुरू में एक बैचेनी होगी ,  अजीब लगेगा । और खाली पन गहराया तो केवल आत्मा उन तक जाएं , किसी दिन वह भी ना लौटे । जैसे ही हाथ खाली हुए , स्वतः मानसिक सेवा शुरू होगी , अपनी लघुता , दीनता आभास होगी । आज तक कहीँ , पहली बार असहज लगेगा । भगवान बडे भोले है उन्हें नोट का रंग रूप नहीँ समझ आता । हमारे आज के धन पर आने वाली पीढ़ी हँसेगी , जैसे हम 10 पैसे और उसके वर्चस्व को बढ़ो से सुन हंसते है , तो भगवान तो ....
कस्तूरी तिलक हो एक बार नहीँ , नित्य । बड़े बड़े धनी नहीँ कर सकते ऐसी सेवा नित्य , केवल उपकार उनका की कैसी भी सेवा में राजी है , पर उन्हें मन की सेवा , भाव की सेवा ही चाहिए । बस  । भाव से ध्यान कर उनका सृंगार हो । बड़े भाव से , मानसिक । अब भाव की सेवा में भी दीनता रही , तो अहा । कृपा उनकी । भाव सेवा में भी रज पात्र हो , कुंदन - स्वर्ण नहीँ । अपनी लघुता और स्वर्ण - रज में भेद मिटे और रज में अधिक आकर्षण हो जैसा स्वर्ण में होता है  तब रस है , ब्रज रज ही नहीँ सर्वत्र की रज में । ब्रज रज में तो झुकना स्वभाविक है , वहाँ तो हो सकता है ,   वहाँ श्रद्धा है , इसी श्रद्धा का विस्तार हो । 
..... जब पहली बार खाली हाथ गए और तब व्याकुल लौटे तो वहाँ कुछ तो छुटेगा ही , और यूँ ही मन कभी वहीँ छुट जाएगा । वस्तु हमको भगवत् द्वार से भी अहं में लौटाती है । अपने दीपक , अगरबत्ती से भी इंसान ममता कर लेता है , भगवान का सच्चा दर्शन ना कर क्रिया सम्पादन ही हो जाता है ।
बहुत से लोग नित्य शिव जी पर जल चढाते है , जो करना भी चाहिए । एक दिन उस जल पात्र बिन जाकर देखिये , तब अपने पास कुछ नहीँ यें आभास होगा । और अपनी सेवा का स्वतः महत्व बोध भी होगा । फिर केवल साधारण जल चढ़ाना नहीँ रह जायेगा , अगले दिन उस जल में भाव भी तरल होकर चढ़ने लगेंगे । केवल क्रिया का भी फल है , परन्तु फल ही तो सब कुछ नहीँ , हर बात में तोहफे देना उनकी आदत है । भाव हीन अथवा अहम् युक्त सेवा का भी फल है तो सोचिये इतना कोई कैसे करुण हो सकता है । इंसान तो किसी के घर मनुहार बिन चाय भी नहीँ पीते , केवल ईश्वर है जो सर्व विधि सर्व रूपेण सब कुछ स्वीकारते है , अतः भाव से हो तब उन्हें और रस मिलता है , और धीरे धीरे केवल भाव ही निवेदन होना रह जाये , क्योंकि प्रति कण वहीँ तो स्वयं ही ......
---- सत्यजीत तृषित ।

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