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सत्यजीत की तृषा ।।। ..... प्यास ।।।

हे मनहर , हे प्रियतम् , तृषित हूँ , रहना है , कुछ कहना नहीँ , कोई विचार भी बनता है तो लगता है क्यों ? क्या मेरे प्रियतम् सब जानते नहीँ । विचार के बुनने की भी क्या जरूरत । परन्तु भय है आप अकारण करुणावत्सलता से भरे हो । एक विनय जिसे आप जानते भी ही हो । तब भी कभी चित् अन्य धाराओं पर बह ,मयबद्ध हो , अथवा कोई सन्त कृपा या आपका नेह कोई अन्य स्थिति की अपेक्षा तब भी इसे ही ध्यान में रखे और मुझे भी ख्याल रहे । क्योकि तृषा की नित्यता अब यूँ ही है ।
...... अपने इस जन्म से संतुष्ट नहीँ , भजन नहीँ हुआ , ना हो रहा है , ना ही .... ।।। जैसा करना था वो नहीँ हुआ । कृपा से हुआ जो , पर तरह तरह के प्रपञ्च , और पाखण्ड लौकिक दायित्व । जब भी कहीँ अन्य किन्हीं स्थितियों में स्वयं को पाता हूँ , पीड़ा होती है , हर वह शब्द जिसके संग नाम ना हो , चुभता है , जब भी लौकिक घटनाओं में रहना और अपनी प्रतिक्रिया देनी हो तब भी ...... पर नहीँ , आपकी वस्तु मात्र , जैसा चाहे वैसा । कठपुतली । कहीँ भी नचाओ , मौन करो या शब्दों की वर्षा करो पर एक विनय है .... अभी एक दया करना , इस जन्म प्यास चाहिए , सच्ची सी प्यास , आपके नाम , लीला , रूप , धाम , गुण की प्यास । मिलन भी नहीँ अभी क्योंकि इस बार बहुत काल व्यर्थ गया और एक बार के नाम उच्चारण से होने वाला मिलन मुझसे ना होगा .......  कैसे फिर सन्मुख हो सकूँगा , नहीँ ।।। जब अन्यत्र कुछ सोचा , विचारा तो नहीँ । यह दोष है मेरा , इसे हरण कर इस बार मिलन नहीँ , केवल सच्ची प्यास की आस है , और उस के निर्वह के लिए एक जन्म और ... कैसी भी योनि , जाति हो वास धाम हो तो कृपा रहे , और तब बाहरी चक्षु ना हो , बहुत देख लिया ,किसी भी पल अन्यत्र देखना गहन पीड़ा है , सो इस बार जैसा आप चाहे तब वह जो प्यास उठी , नेत्र न हो , बहरापन हो , कुछ सुनाई ना दे , वाणी न हो , एक ही हाथ हो जिसमें सुमिरणि जी रहे , और ना रहे तो भी केवल नित्य पल एक नाम हो , बस । ... नाम । कहीँ जाने की अब आवश्यकता नहीँ , सो पंगु भी कर दो तो कृपा , इन इंद्रियों में कही न कही कोई अन्य चेष्टा हो ही जाती है । तब इनका दमन करना ही है सो उपकार हो कि अगर सहज कृपा कर मिलन प्रीति आप देना चाहे तो नहीँ । .... पहले एक जन्म जहाँ एक प्यास स्मृत रहे , अन्तः में संग हो और केवल कहीँ पड़े सुमिरन । ना कुछ और देख सकूँ , ना सुन सकूँ , ना कह सकूँ , ना जा सकूँ कहीँ , ना कोई नाम - वाम हो , कुछ नहीँ । .... तब निज मन की हो सके । एक जीवन हो ऐसा तब लगे भजन हुआ तो आ जाना , और समेट लेना अपने .....
तब भी किसी कारण से न हुआ जो भजन चाहिए तो नहीँ , फिर नहीँ । फिर फेक देना चौरासी लाख योनियों में और अगर तब भी किसी जन्म में ना हुआ तो तब भी नहीँ, आप कोई सस्ती वस्तु नहीँ , आप बहुत कीमती हो , अगर मिलन के लिए लाखों युग भी कम है तो वहीँ चाहिए , पर सस्ता मिलन नहीँ , अब इस दफ़ा बस एक प्यास चाहिए , जब तक आत्मा -मन आप बिन रो रो कर अधमरे न हो , प्राण भी ना जाये ,और तब मिले वो भजनमय , विकलांग देह । नेत्र-वाणी-कर्ण आदि को इस बार समझ लिया , ऐसी चेष्टा हो ही ना कि भीतर की झाँकि में बाधा हो । बाबा कहते है ,परम् सन्त के सन्निधि से अगले जन्म में काम बन ही जाता है , अतः इस बार बस तडप जगा दो , बस , यें तो है तय इस बार मिलन है भी नहीँ , सब बर्बाद कर दिया , बार-बार । अब सन्मुख हुआ भी नहीँ जाएगा , लाज से देख भी ना सकूँ , ऐसा मिलन नहीँ , मोहन ।। सो एक और जन्म जिसमें केवल तुम हो और मैं , भजन हो , तब जो घटे वह सब  मेरा हो , बस । इस बार आप खेल लो कैसे भी , बस मरते समय तक प्यास जगा देना , तृषित कर ही देना , करोंगे न मेरे ......  ।।।
मुझे मिलना है पर यूँ नहीँ , प्रियतम् । .... हे मोहन , मेरे माधो , मेरे रमण , मेरे सर्वस्व , हे गोविन्द ..... !!! -- सत्यजीत तृषित ।।।

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