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दास भाव से सख्य

अधिकार प्राप्ति बिना,दास भाव में सख्य भाव बाधक है।'
मैं प्रभु का दास हूँ और मैं प्रभु का सखा हूँ-इन दोनों भावों में बडा अंतर है।लीला में है तो सखा है,भूतल पर है तो अभी खुद का ही ठिकाना नहीं है।हजारों वर्षों से प्रभु से बिछुडा जीव प्रभु को और अपने आपको भूल गया है।इसलिये तो अभी तो रास्ते पर,मार्ग पर आने की जरूरत है।पुष्टि मार्ग में ब्रह्म संबंध प्रभु को आत्म समर्पण और दास भाव के लिये है।हम समर्पण नहीं करते,हम पूर्णतया समर्पित होते हैं स्वयं।इससे लीला में प्रवेश होजाता है।पर आरंभ में देहाध्यास आदि अनेक बाधाएं होती हैं।हजारों वर्षों से प्रभु से बिछुडकर भूतल पर रहने से दिव्य स्वभाव भुला जाता है और संसार के जीवों की आदत पड जाती है इसलिये ब्रह्म संबंध से समर्पित होकर दास भाव से सेवा करने से धीरे धीरे भाव और स्वभाव परिवर्तन होता है।निरंतर संसार के बजाय हरि,गुरु,वैष्णव के सानिध्य में बने रहने से विवेक-धैर्य- आश्रय का विकास होने लगता है।इसमें दास भाव ही सहायक है।दास भाव में विवेक धैर्याश्रय आसानी से अंगीकृत होते हैं,स्वामी भाव में नहीं।स्वामी तो प्रभु ही हैं।जीव स्वामी नहीं है।जीव स्वामी बनकर विवेक धैर्याश्रय अपनाने की कोशिश करेगा तो सफलता नहीं मिलेगी।दास भाव रहा तो ही मिलेगी।इसलिये वल्लभ आज्ञा है-अभिमान त्यागकर स्वामी के अधीन रहने की भावना करे।'
स्वाभाविक है तब सख्य भाव भी नहीं होगा।यह जबर्दस्ती अधिकार पाने की बात नहीं है।दासभाव सिद्ध होने पर प्रभु ही इसका दान करते हैं।अगर स्वयं सख्य भाव रखने जाय तो उसका अहंकार प्रभु से विमुख कर देगा।और ऐसा कौन सखा है जो प्रभु से विमुख है?सभी सखा सप्रेम प्रभु को समर्पित हैं।
गोपाल माई खेलत हें चोगान।
व्रज कुमार बालक संग लीने वृंदावन मैदान।।
चंचल बाजि नचावत आवत होड लगावत आन।
सबही हस्त ले गेंद चलावत करत बावा की आन।।
करत न शंक निशंक महाबल हरत नृपति कुलमान।
परमानंद दासको ठाकुर गुन आनंद निधान।।

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