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भावदेह 2

भावदेह 2
प्रियप्रियतमौ विजेयताम्  ।।
भाव का साधन ही यथार्थ साधन है । अभाव के साधन में भाव की साधना नहीँ हो सकती । इसलिए प्रवर्तक-अवस्था में अभाव के शरीर को भाव के शरीर में परिणत करने की चेष्टा करनी पड़ती है। नाम और मन्त्र -- यें प्रारम्भिक चेष्टा में सहायक होते है ।
जिन्होंने भक्ति तत्व का अनुशीलन किया है , वें जानते है क्रियारुपा भक्ति क्रमशः फलरूपा भक्ति में रूपांतरित होती है , जी भक्ति फलरूपा है , प्रयास की अवस्था ही फल रूप में प्राप्त होती है , अर्थात् जहाँ जहाँ आज प्रयास करने हो रहे है स्वभाविक भक्ति होने पर वह स्वतः होंगे या रस मय होंगे । उदाहरण के लिए आज भगवान के सामने हाथ जोड़ने का प्रयास होता है तब हाथ ना जोड़ने के लिए परिश्रम होगा । जिन प्रार्थनाओं में आज स्वयं को जोड़ने का श्रम होता है स्वभाविक अवस्था में ऐसा संसार हेतु होगा श्रम ।।
प्रारम्भिक अवस्था में जो होता है जैसे संग है तब तक भाव बाद में वहीँ संसार पूर्ववत् यह सब क्रियाभक्ति या  कही भक्त्याभास या साधन भक्ति भी कहा जाता है , परन्तु यह वास्तविक साधन भक्ति नहीँ है , कृत्रिम साधन भक्ति है , क्योंकि प्राकृत देहाभिमान के रहते हुए प्रकृत साधन भक्ति का उदय नहीँ हो सकता । नवधा भक्ति भी जब स्वतः संचारित न हो करना पड़े , अर्थात् भय से हो , आदेश से हो , स्वतः सब न होने लगे तब तक प्रारम्भिक स्तर है और वास्तविक साधन भक्ति भी उदय हो तब यही सब आवश्यक हो जाएगा , जैसे देह को वायु , सम्भव है अप्राकृत रूप से ही हो । प्रारम्भ में तो सभी क्रियाओं में केवल देहात्मबोधमुलक कृत्रिम अहंभाव की क्रीड़ा ही रहती है । वस्तुतः भक्त को समझने का प्रयास करना चाहिए भक्ति साधन किस स्तर हेतु है , दैहिक अथवा आत्मिक सुख भी मिले तो स्तर लघु हुआ , होता यें ही है (देह और आत्म बोध से भी गहरी स्थिति हो तब भक्त स्वयं की अन्तः स्थिति को कभी प्रदर्शित नहीँ कर सकता और पिपसु ही रह जाता है , तृप्ति ही बताती है कि रस को केवल देह या आत्मा के स्तर पर पी लिया गया , बढ़ी बात नहीँ परन्तु जब बहुत से भक्त समूह सामने होते है तो वहाँ एक भाव होता है जो कहता है मैं विशेष हूँ और यही भावना स्तर का ठहराव है , वर्तमान स्तर से जब तक आगे बढ़ने की ललक ना होगी वहीँ सीमा बन जायेगी , देखने में क्रिया एक होती है परन्तु देहात्मबोध तक सिमित ना होने पर दिव्य हो जाती है । वैसे कहा जाएं तो ज्ञान भी लौकिक सुख या सम्मान हेतु है तो वह अज्ञान ही है , सभी प्रकार से भगवत्सुख वर्धन की स्मृति ही वर्तमान से असन्तोष कर और आगे लें जाती है और देहात्मबोध की स्थिति होती नहीँ ।
भाव कैसे उदित होता है , यहाँ आचार्य जन कहते है भाव का आविर्भाव कर्म और कृपा से दिखाई पड़ता है । प्रयास से किये साधन करते करते वास्तविक साधन भक्ति भाव भक्ति में परिणत हो सकती है ।
परन्तु प्रारम्भिक साधन ना होने पर भी भाव भक्ति का उदय हो जाता है , इसलिए कृपा को ही मूल कारण मानना चाहिये , पूर्व में भी बात हुई भक्ति ह्लादिनी शक्ति की वृति है और अपनी शक्ति जीव के हृदय में भगवान ही छोड़ते है । अतः कृपा से ही । यह कृपा सीधे भगवान और सिद्ध भगवत् भक्त की भी हो सकती है । अतः भावभक्ति कृपा साध्य है निष्काम साधन हो तब कृपा शीघ्र दर्शन देती है । क्रमशः ........  --  सत्यजीत "तृषित" । शेष अगली क़िस्त में ,  विस्तार और समझते हुए "भक्ति तत्व" हेतु पूर्ण सप्त दिवसीय सत्संग कर सकते है , जिसमें सम्पूर्ण भक्ति अवस्थाओं का यथेष्ठ भगवत् चाह से वार्ता सम्भव हो । क्योंकि सब लिख पाना सम्भव नहीँ हो पाता । 09829616230 . ---

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