भावदेह 1 ....
श्री प्रियप्रियतमौ विजेयताम् ।।
नोट -- मेरी बात समझ नहीँ आती , ऐसा बहुत से पिपासु कहते है , अतः इसे भी मनन पूर्वक पढियेगा । किसी भी बात को हृदय की आद्रता संग ही कहा गया है , ना कि स्थूल अहम् से ।।।
दीर्घकालतक नियमित रूप से नाम साधना करते रहने से यथासमय भगवान की करुणा का उद्रेक होता है , और वें पथ प्रदर्शक गुरु के रूप में नाम साधक भक्त के सामने आविर्भूत होते हैं । नाम साधना के द्वारा चित्त शुद्धि तथा देहशुद्धि यथासम्भव अवश्य ही होती है , परन्तु जब तक भक्त गुरुदत्त बीज को प्राप्त करके अपने अशुद्ध बीज देह को शुद्ध काया में परिणत नहीँ कर पाता, तब तक वास्तविक साधना का सूत्रपात नहीँ हो सकता । (अर्थात् यहाँ भावदेह की बात है ) ....यह कहने की आवश्यकता नहीँ कि प्राकृत शरीर में भगवत्साधना नहीँ होती । प्राकृत शरीर जागतिक विकार के अधीन है , इसके द्वारा अप्राकृत और निर्विकार भगवतत्त्व की साधना सम्भव नहीँ है ।
(हम सद्गुरु और गुरु तत्व की विशेषता का भी शीघ्र चिंतन करेंगे , जिससे साधक शीघ्रता नहीँ धैर्यता से गुरु ग्रहण करें , वस्तुतः प्रत्येक साधक जो भगवत् पथ पर है , उसे गुरु प्राप्त ही है , अप्राकृत रूप से , साधना में नाम साधना से भगवान ही सदगुरु रूप में आविर्भूत होते है , यें बात अभी उन साधकों के लिए जिन्हें लगता है गुरु नहीँ है , गुरु तो है , रूप कुछ भी हो सकता है , और यथेष्ट शुद्धि से चित् ग्रहण भी कर लेगा अपने अन्तः गुरुत्व का त्याग साधना के प्रत्येक मार्ग में अपेक्षित है , भले प्रेम हो अथवा योग , अतः अपने अन्तः के महतत्व की शुद्धि हेतु बाहर गुरु होना आवश्यक है , जब तक भीतर का गुरुतत्व बाहर नहीँ होगा , लघुता नहीँ उदय होगी , किसी भी पद में दो भाव होते है गुरु और लघु । हमारी चेतना में भी है गुरु लघु , गुरु प्रगट होने पर लघुता अप्रगट होती है , और भीतर के गुरु की विस्मृति हेतु लघुता का उदय आवश्यक है , जिसके लिए गुरु अनिवार्य है , साधना के पथ पर प्रारम्भ में गुरु किसी ग्रन्थ-मन्त्र अथवा स्वयं भगवान अन्तः चेतन से आत्मसात् करते है और पूर्ण लघुता के उदय पर गुरु प्रगट होते है , अगर व्यक्ति दीक्षित हो परन्तु उसमें अब भी गुरुत्व शेष हो , लघुता (दासत्व) ना उदय हुआ तब वह केवल भ्रम में है , और साधक ना हो कर भौतिक जीव है , अतः प्राप्य असाधारण स्थिति से भी जुड़ स्वयं के स्वभाव को ना जान भटकना ही चाहता है । और ऐसा दुर्भाग्य से बढ़ रहा है , हम विस्तार से सद्गुरु विषय पर बात करेंगे , उन साधकों हेतु जिनमें गुरु हीन होने से या तो व्यथा है अथवा अहम् विकसित होने लगा है )
बीज साधना के फलस्वरूप क्रमशः बीज की अभिव्यक्ति तथा उसके प्रभाव से मलिन सत्ता को दूर करना सम्भव हो जाता है । पांचभौतिक उपादानों का आश्रय लेकर उनसे अनुस्यूत जो हमारा अशुद्ध शरीर विद्यमान है , उसका जब तक संस्कार नहीँ होता , तब तक उसके लिये प्रकृत साधन मार्ग में प्रविष्ट होना दुष्कर है । गुरुदत्त साधना के फलस्वरूप भूत और चित्त शुद्ध अवस्था धारण करते है , अतएव पूर्वस्थिति अशुद्ध शरीर विगलित हो जाता है और अपने अपने भाव के अनुसार एक अभिनव शरीर का आविर्भाव होता है। यह स्वभाव शरीर होता है , इसी का पारिभाषिक नाम है -- भावदेह ।। यह देह निर्मल , अजर और अमर होता है तथा क्षुधा-पिपासा , काम-क्रोध प्रभृति प्राकृतिक धर्मो से वर्जित होता है ।इस भावदेह को प्राप्तकर भक्त प्रवर्तक अवस्था से साधक अवस्था में उपनीत होता है । साधारणतः जगत् में जिसको साधना कहते है , वह कोई प्रकृत साधना नहीँ है । स्थूल देह में अभिनिवेश या तादात्मबोध के रहते हुए कोई भी साधना क्यों न की जाय , वह अकृत्रिम स्वभाविक साधना के रूप में परिगणित नहीँ हो सकती । भाव का साधन ही यथार्थ साधन है । अभाव में शरीर में भाव की साधना नहीँ हो सकती । अतएव प्रवर्तक अवस्था में अभाव के शरीर को भाव के शरीर में परिणत करने की चेष्टा करनी पड़ती है । नाम और मन्त्र -- यें प्रारम्भिक चेष्टा में सहायक होते है । .... क्रमशः .... ।।
शेष अगली क़िस्त में ,
विस्तार और समझते हुए "भक्ति तत्व" हेतु पूर्ण सप्त दिवसीय सत्संग कर सकते है , जिसमें सम्पूर्ण भक्ति अवस्थाओं का यथेष्ठ भगवत् चाह से वार्ता सम्भव हो । क्योंकि सब लिख पाना सम्भव नहीँ हो पाता । 09829616230 .
--- सत्यजीत तृषित ।
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