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शरणागति

शरणागति ।
यहाँ क्या चाहिए , कैसी स्थिति चाहिए ? सच में तो यहाँ कुछ प्रयास नहीँ । यहाँ अपनी प्यास और सच्ची असमर्थता चाहिए । जो उनसे होगा , वो हमसे नहीं । अपने दर पर किसी को यूँ आये क्या मैंने सम्भाला । कौन हूँ मैं , कितनी सूक्ष्मतायें है ? क्या अपने घर के कीट-मच्छर आदि , चींटियों से मेरा कोई परिचय है ? क्या कभी अपने से लघुतर जीवों पर मेरी दृष्टि गई ? क्या कभी अपने तन पर चढ़ती चींटी की मैंने सहायता की ? या उसे जाने अन्जाने मार डाला ? जब मुझे किन्हीं सूक्ष्म दिखते जीवों से कोई सम्बन्ध नहीँ तो कैसे कोई मुझसे परम् मेरा सम्बन्धी हो ? जब मुझमेँ प्रभुता तो है अपने से छोटे जीवों के प्रति पर करुणा और प्रेम नही ।
कितने परम् ईश्वर की करोड़ों सृष्टियों में असंख्य जीवों में कोई एक जीव । बस यें हूँ उनके आगे ।
क्या किसी दस पाँच फेक्टरी वाले धनी को अपने सभी कर्मचारियों से अपनत्व होता है । या पता भी होता है सबका , तो यहाँ तो सृष्टियों की संख्या भी अज्ञात है । जीवों की क्या कहीँ जाएं ?
कैसा साधन हो असीमित व्यापक परम् के समक्ष , उनकी प्राप्ति का । विचार करिये । बूँद रेगिस्तान में जो गिरी हो कैसी उछाल लगाएं कि सागर में मिल जाएं ।
यहाँ सबसे अधिक महत्व है तो उनकी "कृपा" का । उनके दर पर यूँ ही गिरे कि वें सज़दा समझ दौड़े आये । या किसी भी सच्ची -झूठी साधन पर वें मुस्कुरा दिए अपने हो गए । तो उनकी कृपा -उनकी करुणा । उनका प्रेम । उनकी पुकार और उनका साधन । अतः शरणागति में पहले तो कृपा क्या है ? और हम कितना प्रयास कर सकते है । कितना हमारी उछाली गेंद उछल सकती है क्या वो उन तक जा सकती है ? कितनी तडप हमारी पुकार में है ? कितनी भी हो उनका सुनना , उनकी ही कृपा । पूर्णकृपा ।
शरणागति तीन बात और कहती है - एक , केवल वें ही सर्वस्व रह जाये । शरणागत होने पर पुनः स्वामी नहीँ बदले जाते । कभी इधर कभी उधर द्वार नहीं खटखटाया जाता । और यें होता है आज कल । अपने स्वामी की स्मृति छूटती ही नहीं । एक की ही शरण में सर्वस्व हो । कहीँ और कुछ चाह नहीं । यहाँ सिद्धि के लिए गीता जी में उनका कथन देखिये -- भजतेमामनन्य भाक् । दूसरे को हिस्सा ना दे । उनके अतिरिक्त कोई शरण देने वाला भी नहीँ । जीवन में भौतिक सुखो की पूर्ति के लिए गुरु या अध्यात्म नहीं ना ही ईश्वर । आज समय ऐसा ही है । संसार के दुःख दर्द को जो मिटा दे वो श्रेष्ठ गुरु और ईश्वर । और बेहतर सुख सुविधा मिल जाएं । संसार के कीचड़ में ना सत् गुरु अपने प्रिय शिष्य को डालते है ना भगवान । आज जो आपको साईकल से मर्सिडीज में लें जाएं वो ही गुरु या ईश्वर । कथित धार्मिक चैनल पर ऐसे ही प्रसारण होते है । साधारण बुद्धि की बात है , भक्ति-अध्यात्म भगवत् सुख के वर्धन के लिए ही है । ना कि संसार में दो दुनी चार के लिए । ये हुआ तो आपने अपनी ही आत्मा को ठगा दिया । आप महल भी खड़े करोगें कल खण्डहर ही होंगे और तब मलबा भर रह जाएंगे । कल के महल आज खण्डहर है और कल मलबा परसों कुछ ना होंगे । सो इस भाव से भजन साधना सही दिशा में ना गई । आसक्ति -भौतिक कामना ना रहे तब ही शरणागति का रस है , यें इसलिये कहा कि अब बहुत सुनने को मिलता है , मैं तो शरणागत हूँ  , समर्पित हूँ  । और कुछ नए रूप में सरेण्डर हूँ भगवान के आगे । वहाँ कथित शरणागति में कारण है । भौतिक सुख वृद्धि ।
दूसरी बात भगवान में पूर्ण विश्वास हो । शरणागति के बाद कोई भी चिंता रह ही नहीँ जाती । अगर यें भाव हो कि शरण तो हो जाते है पर कुछ तो करना तो होगा ही , जैसा कि कई बार लोग मिलते है कि शरण तो हूँ पर संसार में रहना है तो कुछ तो आज सा होना होगा । ऐसी दशा में शरणागत अपने अनीति के कर्म भी करता रहता है । भ्रष्ट रह कर कैसी शरणागति । कुछ संसार की भ्रष्टता छोड़ी नहीँ जाती तो कैसी शरणागति । अतः शरणागत हो कर पूर्ण विश्वास रहें कि अब और कुछ क़दम चलना ही नहीँ । यहाँ तो रस है , जीवन को नई दृष्टि मिलती है ।
और तीसरी बात शरणागत जहाँ शरण है वहाँ चाह , कोई मांग नहीँ कर सकता । बिलकुल भी कोई भी मांग ना रहे ।
एक और भाव होता है । कि जैसा तैसा हम हुए , भले कितने ही मैले , तो सन्मुख और शरण पा कर पवित्र हो ही जाते उनकी कृपा से विशुद्धि सम्भव ही है । पवित्रता आनी ही है । तब भी हमें यथा सामर्थ्य निर्मलता को पा कर अपनी कलुषता को दूर करना चाहिए क्योंकि प्रेम में उन्हें अपने मैले हृदय पर बैठाने की चेष्ठा कुछ असह्य ही है । उनकी सन्निधि में कोमल होना ही है तब भी हमारे काँटों का ख़याल हमें रहे । अन्तः शुद्धि की चेष्टा हो ।

जो भी पाप - दुराचार - बुराई हमसे होती है उनके कारण है , भोग - कामना - भोग आदि में श्रद्धा , आश्रय । भोगों की शरण्यता में विश्वास ।
जब शरणागति हो जाती है तो शरण्यता में भोगों में आसक्ति ना होने से अन्तः करण निर्मल होने लगता है । शेष आगे । श्यामाश्याम । सत्यजीत तृषित ।

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