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प्रेम में स्थिति , जब एकाकिकार हो जाए

भक्त में जब केवल प्रियतम् ही प्रियतम् हो वो स्वयं को पूर्ण रूप से
विस्मरण कर दे । तब ही अज्ञात परन्तु सत्य भाव  प्रस्फुरित होते है ।
क्योंकि तब साधन कोई और एवम् साध्य कोई और है ।
इस रस का जब भी साधन (प्रेमी)  को आभास होता है वो चकित् होता है । परन्तु रस में अज्ञात स्नान का भी आनन्द है । उस समय स्थूल पर कारण और कारण पर सूक्ष्म और सूक्ष्म पर अति सूक्ष्म  स्वरूप परमात्मा धीरे धीरे प्रगाढ़ होते है ।
प्रेम में इसे विवर्त कहते है । जब तक विवर्त न घटे प्रेम का रस न मिलेगा।
कोई आप में उतरना चाहे । न वो आपसे पूछे न आप उन्हें रोके और गहरे गहरे में वे प्रगाढ़ और निज देह में आप शांत हो जाये तो होता है रस । इस स्थिति में हुई वार्ता घटना का उत्तर जीव के पास शायद सामान्य अवस्था में न हो क्योंकि वहां कर्ता कर्म किया सब कोई विशेष था । और प्रेमी  जीव ने रस अनुभूत करने हेतु शाब्दिकता को छू कर भी न छुआ ।
एक बार पूर्णतम शिथिल - रिक्त होना है । सच कहे है वे सन्त कि विचार जितने दूर होंगे ईश्वर उतने निकट । जितने सूक्ष्म विचारो के जाल होंगे चेतना उनमे उलझी होगी । महा सूक्ष्म और महाविभूतं नही उतरेगे । पात्र की   रिक्तता पर निर्भर है । और प्रेम है तो रिक्त होने का प्रयास ही न करना होगा । क्योकि प्रेम तुम होना चाहता है  । खुद को उनमे और उनमे खुद को समाना । प्रेम में दो एक होते है और रस के लिए दोनों ही धारा में एक होकर बहते है । प्रेमी भक्त भगवान के जीवन लीला को छूना और भगवान भक्त के जीवन में । भक्त के चित् में भगवान पहले ही है बस जो रस जीव ले रहा है वही ईश्वर प्रगट और अप्रगट होकर लेते है । इसलिए ही निष्कामता कही है । जहाँ निष्कामता होगी वही ईश्वरीय जीवन प्रगट होगा । तुम मुझे मैं तुम्हे जियूँ वाली बात । और प्रेमी भक्त कर्म को कर के नही कर्म को होने से पूर्व ही ईश्वर को दे देता है । ये भी मजेदार है ... आप कोई जमीन किसी को दे की जो मर्जी हो करो खेती करो ईमारत बनाओ जो हो वही तुम्हारा । तो वहां वो अपनी मर्जी करने को स्वतन्त्र है । ज़मीन जिसकी है उसे मतलब ही नही । भले कांटे उगे या फल की बेशुमार पैदावार सब पहले से दे दी गई । या ईमारते हो । केवल ख़ाली ज़मीन देकर दर्शक हो गए । अब सब जिसको दिया वो जाने । तो यहाँ सच में गहरा निस्वार्थ भाव है तो वही होगा जो उनकी ईच्छा । देह भक्त की होगी । कर्म कर्ता क्रिया का सम्पादक कोई और होगा । क्योकि कर्म से पूर्व कर्म ईश्वर का हुआ । जीव के और ईश्वर के कर्म में भिन्नता है । जीव जडता से सोचता करता है । ईश्वर चेतना से कर्म करते है । कई लोग सोचते है कि समर्पण बर्बाद करता है । बल्कि ये और भी मजेदार घटना है । भक्ति ; प्रेम ; समर्पण आदि घटनाएँ है ,प्रयास से होती ही नही । प्रयास सुरक्षा चाहता है । स्वयं को कवर कर के डुबाता है । प्रयास से नदी में उतरे पर नदी की एक बुंद न लगेगी । जो खुद गिर जाये वो ही छूकर जी सकता है । उसी नदी में जीवन है और भी सुंदर पर जो उस जीवन को जीना चाहे उनके हेतु । तो ईश्वर को सब सौंपना कर्म से पहले कर्म को सौपना ही सार्थक कर्म है कर्ता ईश्वरीय भाव है तो रस ही रस है । जीव को लगता है कि मैं ही उचित संचालक हूँ परन्तु महासागर में अपनी नाव उसे देना जो जहाज का नही महासागर का ही संचालक हो ये तो परम् स्थिति है । ईश्वर हर दिये को छूटे नही जब तक उसमे से मैं कर्ता आदि न हटे । भले कर्म हो या कोई भोग नैवेद्य सेवा ही ।
तो ईश्वर और ईश्वरीय ज्ञान को केवल ईश्वर कहते है । देह प्रेमी की होती है ।  होते ईश्वर है । इसलिए सत्संग ईश्वर तुल्य है । क्योकि काल परिस्थिति अनुरूप ईश्वर का ही सन्देश निहित है। सत्संग । अब सत्संग घटित होते है । भव्यतम होते है । प्रदर्शनात्मक होते है । ईश्वर आयेगे पर गहरे में ... उथले में नही । उथले में तो ईश्वर निज स्वरूप भी भारी जन समूह में आ जाये तो कोई ईश्वर को ही ईश्वर न माने । प्रेमी में ईश्वरत्व दूर की बात हुई । तुलसीबाबा ; मीरा बाई सां ; आदि प्रेमी कवि एकांत में ही ईश्वरीय बारिश में चूर हो कर उन स्थितियों तक पहुँच गए जहाँ तक जाना सर्वदा असम्भव है । अब बात ये है कि ईश्वरत्व को केवल ईश्वर कहते है तो हर प्रेमी के अनुरूप किंचित् मत अनुरूप क्यों ? इस पर आप चिंतन करे । फिर बात करेगे । चिंतन चेतना का व्याययाम है । चेतना  जीव से नहीँ परम् शक्ति से जुडी है । वो जाग्रत हुई तो जीवन शक्ति के प्रयास ईश्वर हेतु ही होंगे । सत्यजीत "तृषित" ।।।

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