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मंजु दीदी , आओ कहाँ जाते हो

राधे राधे

आओ कहाँ जाते हो ?
मुझे अकेली छोड़ सखे !
बंधन ऐसा हृदय-पाश का
बंधनहीन होकर भी, क्या
तोड़ सकोगे इसे ?

न तुम मुझे विस्मृत करो
मैं तो तुम्हें विस्मृत कर ही न सकूँगी
दूर जगत के इस कोलाहल से
इक नवीन संसार रच लें अपना
यही बात तुम से कब सुन रहूंगी?

वितत निजन एकांत, नदी-तीर, पर्ण-कुटीर
कुटिल आपेक्ष, जगत-विकल-प्रबलम्बन से हट
सरल काव्य सा अपना जीवन, स्वप्न सा निराला
जिसकी प्रत्येक लहर, प्रत्येक वर्ण में
बस तू ही तू-बस तू ही तू

छोड़ तुझे ओ निधनी के प्राण-धन
मुझे कहीं शान्ति नहीं मिलेगी 'मँजु'
तुम्हारी गढ़ी मूर्ति हूँ तुम्हें समर्पित
सुख-वैभव में भी कसक उठती हूँ
तोहि संग जब तक चिर-विश्रान्ति नहीं मिलेगी।
(डाॅ.मँजु गुप्ता)

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