नारदकृत राधा-स्तवन
एक समय नारदजी यह जानकर कि ‘भगवान श्रीकृष्ण व्रज में प्रकट हुए हैं’ वीणा बजाते हुए गोकुल पहुँचे। वहाँ जाकर उन्होनें नन्दजी के गृह में बालक का स्वाँग बनाये हुए महायोगीश्वर दिव्य-दर्शन भगवान अच्युत के दर्शन किये। वे स्वर्ण के पलंग पर, जिस पर कोमल श्वेत वस्त्र बिछे थे, सो रहे थे और प्रसन्नता के साथ प्रेमविह्वल हुई गोपबालिकाएँ उन्हें निहार रही थीं। उनका शरीर सुकुमार था; जैसे वे स्वयं भोले थे। वैसी ही उनकी चितवन भी बड़ी भोली-भाली थी। काली-काली घुँघराली अलकें भूमि को छू रही थीं। वे बीच-बीच में थोड़ा-सा हँस देते थे, जिससे दो-एक दाँत झलक पड़ते थे। उनकी छवि से गृह का मध्यभाग सब ओर से उद्भासित हो रहा था। उन्हें नग्न बालरूप में देखकर नारदजी को बहुत ही हर्ष हुआ।
उन्होंने नन्दजी से कहा - ‘तुम्हारे पुत्र के अतुलनीय प्रभाव को, जो नारायण के भक्तों का परम दुर्लभ जीवन है, इस जगत में कोई नहीं जानता। शिव, ब्रह्मा आदि देवता भी इस विचित्र बालक में निरन्तर अनुराग रखना चाहते हैं। इसका चरित्र सभी के लिये आनन्ददायी है। अचिन्त्य प्रभावशाली तुम्हारे शिशु में स्नेह रखते हुए जो लोग इसके पुण्य-चरित्र का सहर्ष गान, श्रवण तथा अभिनन्दन करेंगे, उन्हें कभी भव-बाधा न होगी। गोपश्वर! तुम परलोक की इच्छा छोड़ दो और अनन्यभाव से इस दिव्य बालक में अहैतुक प्रेम करो।’
यह कहकर मुनिवर नारद नन्दभवन से निकले। नन्द ने भी विष्णु-बुद्धिसे मुनि को प्रणाम करके उन्हें बिदा दी। इसके बाद महाभागवत नारदजी यह विचारने लगे - ‘भगवान की कान्ता लक्ष्मीदेवी भी अपने पति नारायण के अवतीर्ण होने पर उनके विहारार्थ गोपीरूप धारण करके कहीं अवश्य ही अवतीर्ण हुई होंगी, इसमें कोई संदेह नहीं है। अतः व्रजवासियों के घरों में उन्हें खोजना चाहिये।’
ऐसा विचारकर मुनिवर व्रजवासियों के घरों पर अतिथिरूप में जा-जाकर उनके द्वारा विष्णु-बुद्धि से पूजित होने लगे। उन्होंने भी गोपों का नन्दनन्दन में उत्कृष्ट प्रेम देखकर मन-ही-मन सबको प्रणाम किया।
तदनन्तर वे नन्द के मित्र महात्मा भानु के घर पर गये। उन्होंने इनकी विधिवत् पूजा की। तब महामना नारदजी ने उनसे पूछा - ‘साधो! तुम अपनी धार्मिकता के कारण विख्यात हो। क्या तुम्हें कोई सुयोग्य पुत्र अथवा सुलक्षणा कन्या है, जिससे तुम्हारी कीर्ति समस्त लोकों को व्याप्त कर सके?’
मुनिवर के ऐसा कहने पर भानु ने पहले तो अपने महान् तेजस्वी पुत्र को लाकर उससे नारदजी को प्रणाम करवाया। तदनन्तर अपनी कन्या को दिखलाने के लिये नारदजी को घर के अंदर ले गये। गृह में प्रवेशकर उन्होंने पृथ्वी पर लोटती हुई नन्हीं-सी दिव्य बालिका को गोद में उठा लिया। उस समय उनका चित्त स्नेह से विह्वल हो रहा था। कन्या के अदृष्ट तथा अश्रुतपूर्व अद्भुत स्वरूप को देखकर श्रीकृष्ण के अत्यन्त प्रिय भक्त नारदजी मुग्ध हो गये। वे एकमात्र रस के आधार परमानन्दमय समुद्र में गोते लगाते हुए दो मुहूर्त तक पत्थर की भाँति निश्चेष्ट बने रहे, फिर उन्होंने आँखें खोलीं और महान् आश्चर्य में पड़कर वे मूकभाव से ही बैठे रहे।
अन्ततोगत्वा महाबुद्धिमान् मुनि ने मन में इस प्रकार विचारा - ‘मैंने स्वच्छन्दचारी होकर समस्त लोकों में भ्रमण किया, परंतु इसके समान अलौकिक सौन्दर्यमयी कन्या कहीं भी नहीं देखी। ब्रह्मलोक, रुद्रलोक और इन्द्रलोक में भी मेरी गति है; किंतु इस कोटि की शोभा का एक अंश भी मुझे कहीं नहीं दीखा। जिसके रूप से चराचर जगत् मोहित हो जाता है, उस महामाया भगवती गिरिराजकुमारी को भी मैंने देखा है। वह भी इसकी शोभा को नहीं पा सकती। लक्ष्मी, सरस्वती, कान्ति और विद्या आदि देवियाँ इसकी छाया का भी स्पर्श कर सकती हों - ऐसा भी नहीं देखा जाता। अतः इसके तत्त्व को जानने की शक्ति मुझमें किसी तरह नहीं है। अन्य जन भी प्रायः इस हरिवल्लभा को नहीं जानते। इसके दर्शनमात्र से गोविन्द के चरण-कमलों में मेरे प्रेम की जैसी वृद्धि हुई है, वैसी इसके पहले कभी नहीं हुई थी। अस्तु, अनन्त वैभव दिखानेवाली इस देवी की मैं एकान्त में वन्दना करूँ। इसका रूप भगवान श्रीकृष्ण के लिये परमानन्दजनक होगा।’
ऐसा विचारकर मुनि ने गोपप्रवर भानु को कहीं अन्यत्र भेज दिया और एकान्तस्थान में वे उस दिव्यरूपिणी बाला की स्तुति करने लगे —
‘देवि! अनन्तकान्तिमयी महायोगेश्वरि! तुम्हारा अंग मोहन एवं दिव्य है, उससे अनन्त मधुरिमा की वर्षा होती रहती है। तुम्हारा हृदय महान् अद्भुत रसानन्द से पूर्ण रहता है। तुम मेरे किसी महान् सौभाग्य से आज नेत्रों की अतिथि बनी हो। देवि! तुम्हारी दृष्टि अन्तःकरण में निरन्तर सुखदायिनी प्रतीत होती है। तुम अपने अंदर महान् आनन्द से तृप्त-सी दीख पड़ती हो। तुम्हारा यह प्रसन्न, मधुर तथा सौम्य मुखमण्डल हृदय केा सुख देने वाले किसी महान् आश्चर्य को व्यक्त कर रहा है। अत्यन्त शोभामयि! तुम रजोगुण की कलिका और शक्तिरूपा हो। सृष्टि, पालन और संहार रूप में तुम्हारी ही स्थिति है। तुम विशुद्ध-सत्त्वमयी और विद्यारूपिणी पराशक्ति हो तथा परमानन्द-संदोहमय वैष्णवधाम को धारण करती हो। ब्रह्मा और रुद्र के लिये भी तुम्हारा जानना कठिन है। तुम्हारा वैभव आश्चर्यमय है। तुम योगीश्वरों के भी ध्यान-पथ का स्पर्श नहीं कर सकती। मेरी बुद्धि में तो ऐसा प्रतीत होता है कि इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति— ये सब तुम्हारी अंशमात्र है। माया से ही विशुद्ध रूप धारण करने वाले परमेश्वर महाविष्णु की जो अचिन्त्य विभूतियाँ हैं, वे सभी तुम्हारी अंशांशमात्र हैं। ईश्वरि! तुम निस्संदेह आनन्दमयी शक्ति हो, अवश्य ही वृन्दावन में तुम्हारे साथ श्रीकृष्णचन्द्र क्रीड़ा करते हैं। कुमारावस्था में ही तुम अपने सुन्दर रूप से विश्व को मुग्ध कर रही हो। न जाने यौवन का स्पर्श होने पर तुम्हारा रूपलावण्य तथा हास-विलासयुक्त निरीक्षण कैसा विलक्षण होगा। हरिवल्लभे! तुम्हारे उस पूजनीय दिव्य स्वरूप को मैं देखना चाहता हूँ, जिससे नन्दनन्दन श्रीकृष्ण मुग्ध हो जायँगे। ‘महेश्वरि! माता! मुझ शरणागत तथा प्रणत भक्त के लिये दया करके तुम अपना स्वरूप प्रकट कर दो।’
यों निवदेन करके नारदजी ने तदर्पित चित्त से उस महानन्दयमी परमेश्वरी को नमस्कार किया और भगवान् गोविन्द की स्तुति करते हुए वे उस देवी की ओर ही देखते रहे। जिस समय वे श्रीकृष्ण का नाम-कीर्तन कर रहे थे उसी समय भानुसुता ने चतुर्दशवर्षीय, परम लावण्यमय अत्यन्त मनोहर दिव्य रूप धारण कर लिया। तत्काल ही अन्य व्रजबालाओं ने, जो उसी की समान अवस्था की थीं तथा दिव्य भूषण एवं सुन्दर हार धारण किये हुए थीं, बाला को चारों ओर से आवृत कर लिया। उस समय बालिका की सखियाँ उसके चरणोदक की बूँदों से मुनि को सींचकर कृपापूर्वक बोलीं— महाभाग मुनिवर! वस्तुतः आपने ही भक्ति के साथ भगवान् की आराधना की है; क्योंकि ब्रह्मा, रुद्र आदि देवता, सिद्ध, मुनीश्वर तथा अन्य भगवद्भक्तों के लिये जिसका दर्शन मिलना कठिन है, उसी अद्भुत वयोरूपसम्पन्ना विश्वमोहिनी हरिप्रिया ने किसी अचिन्त्य सौभाग्यवश आज आपके दृष्टिपथ पर पदार्पण किया है। ब्रह्मर्षे! उठो, उठो, शीघ्र ही धैर्य धारणकर इसकी परिक्रमा तथा बार-बार इसे नमस्कार करो। क्या तुम नहीं देखते कि इसी क्षण में यह अन्तर्धान हो जायगी, फिर इसके साथ किसी तरह तुम्हारा सम्भाषण नहीं हो सकेगा।
उन प्रेमविह्वला सखियों के वचन सुनकर नारदजी ने दो मुहूर्त तक उस सुन्दरी बाला की प्रदक्षिणा करके साष्टांग प्रणाम किया। उसके बाद भानु को बुलाकर कहा— ‘तुम्हारी पुत्री का प्रभाव बहुत बड़ा है। देवता भी इसका महत्त्व नहीं जान सकते। जिस घर में इसका चरण-चिह्न है, वहाँ साक्षात् भगवान नारायण निवास करते हैं और समस्त सिद्धियों सहित लक्ष्मी भी वहाँ रहती हैं। आज से सम्पूर्ण आभूषणों से भूषित इस सुन्दरी कन्या की महादेवी के समान यत्नपूर्वक घर में रक्षा करो।’ ऐसा कहकर नारदजी हरि-गुण गाते हुए चले गये।
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