जय श्री राधेकृष्ण
हरि रोवत विरूझावत उबटन लगवावत।
जसुदा स्नेह-गोद गहि दुलार पुचकार, मृदु कर फेरि-फेरि मनावत।
हरि नीलकमल सम, पीरौ उबटन, सोभा बरनि न जाई।
सुघड़ नीलमणि, पीत-दिव्य-मुक्ता सम राजत, मैया रीझ-रीझ लपटाई।
अद्भुत रूप-लावण्य, अपलक निमिमेष निरखति मैया, बरौनी जनि झपकाई।
नील दैदिप्य कोटि चंद्रोदय, पीत आभा-बिंदु उबटनौ अंग-अंग सिंगारत
लखि सुत-गात-कान्ति,बेसुध मैया-उर सुखामृत-सिंधु, लै लै हिलोर बाढ़त।
कलप-कलप तप करि मुनि'मँजु'इहिं सुख हरि संग कबहुँ जनि पावत।
(डाॅ.मँजु गुप्ता)
Comments
Post a Comment