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फिलहाल उलझनों में हूँ

फिलहाल उलझनों में हूँ

अजीब हाल सा है

बहुत बिखरता सा

कुछ सिमटा सा

सोचना नहीँ उसे

जीना भर है

महक भी पग पग रहे

वो सागर है , प्रेम सागर

और मैं पर्वत चढ़ रहा ??

क्यों ??

वह जाने !!!

सच , अब सब अजीब है

अब आवाजें भी नहीँ लहरों की

बस कहीँ से महक टकरा रही है

और ना जाने कैसे

और पर्वत चढ़ रहा हूँ

अजीब इम्तिहाँ है

संग है पर्वत पर सागर

यहीँ जीना है

होगा तो रहम

ना हुआ तो

सागर की वो मौजे

बस आँखों की इंतहा

रह जाएंगी ।।।

- -- तृषित

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