"शरणागत जीवन''
"शरणागति भाव है कर्म नहीं।"
''शरणागत् विश्वासी साधक अपने
सभी आत्मीय जनों को समर्थ
(प्रभु) के हाथों समर्पित करके
निश्चिन्त तथा निर्भय हो
जाता है।''
''शरणागत् के आवश्यक कार्य प्रभु
स्वयं पूरा करते हैं।''
- ब्रह्मलीन संत परमपूज्य स्वामी
शरणानन्द जी महाराज
परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है
कि शरणागत अकर्मण्य और
उदासीन (Indifferent) हो जाये।
उसको तो उन्हीं के आश्रित होकर
निश्चिन्त भाव से अपना कर्तव्य-
कर्म निष्ठा, ईमानदारी और
मेहनत से अपनी पूरी योग्यता
लगाकर करते रहना है।
"मनुष्य जीवन का गौरव''
''चाहे हम कुछ भी छोटे से छोटा काम
कर रहे हों ऐसा मान कर करें कि विश्व
रूपी बाटिका का एक छोटा-सा
भाग, मैं भी कर रहा हूँ। हर आदमी को
इस बात का गौरव हो कि चाहे मैं
मजदूर हूँ तो क्या और कोई मिल-ओनर
है तो क्या। मैं क्लर्क हूँ तो क्या, मैं
समाज का उतना ही बड़ा प्रतिनिधि
हूँ जितना कोई भी है। लेकिन आज इस
बात को भूल जाते हैं और समझने लगते हैं
कि मिल-ओनर समाज का बड़ा
प्रतिनिधि है और मजदूर छोटा
प्रतिनिधि है।''
''अरे भाई, ज़रा विचार करके देखो,
आपने किसी मशीन को देखा है ? कोई
पुर्जा बहुत छोटा है और कोई पुर्जा
बहुत बड़ा है। छोटे से छोटे पुर्जे के
बिना मशीन चलेगी क्या ? क्या राय
है ? शरीर को देखो, सर सबसे ऊॅंचा
रहता है और पैर सबसे नीचे। तो सर बहुत
बड़ा हो गया और पैर छोटा हो
गया ?''
''आज मनुष्य, मनुष्य होने में जीवन का
गौरव है इस बात को भूल गया और
परिस्थिति के आधार पर अपने जीवन
का मूल्यांकन करने लगा। मैं बड़ा
आदमी इसलिये हूँ कि मेरे पास इतना
पैसा है। मैं बड़ा आदमी इसलिये हूँ कि
मुझे ऐसा पद मिला है, मैं बड़ा आदमी
इसलिये हूँ क्योंकि मुझमें अधिक
योग्यता है।'' केवल अधिक योग्यता
होने से कोई बड़ा आदमी नहीं हो
जाता। ........................... तो करने
वाली बात तो यह है कि तुम भी बुराई
रहित हो जाओ और मैं भी बुराई रहित
हो जाऊॅं। तुम अपनी सामर्थ्य के
अनुसार भलाई करो, मैं अपनी सामर्थ्य
के अनुसार भलाई करूॅं।''
''जो आपका-हमारा फर्ज है उसे पूरा
कर दो। आप अपनी परिस्थिति का
सदुपयोग करो, मैं अपनी परिस्थिति
का सदुपयोग करूॅं।''
- ब्रह्मलीन संत परमपूज्य स्वामी
शरणानन्द जी महाराज
📝shiv prakash rai
संत वाणी :~
जब तक ,
" करना - होने " में परिणत नहीं होता , तब तक
निराभिमानता नहीं आती ।
( मानव सेवा संघ , वृन्दावन )
जीवन विवेचन :--
स्वामी जी महाराज का कहना है कि , परमात्मा को पसंद करने वाले हो कर भी ,
ईश्वर-विश्वासी और ईश्वर-भक्त होने के अभिलाषी हो करके ,
क्या पसंद किया हमने ?
हमने प्रभु को प्रेम- प्रदान करना नहीं पसंद किया ,
प्रभु को अपना प्रेमास्पद बनाने के लिए ,
उनको नहीं पसंद किया ।
तो क्या पसंद किया ?
मेरी वेशभूषा से ,
मेरी दैनिक दिनचर्या से ,
नाम जाप होने पर भी ,
तरह-तरह के विधि विधान करने पर भी ,
हम प्रभु को नहीं चाहते हैं ।
तो क्या चाहते हैं ?
हम प्रभु पद चाहते हैं ।
( मानव सेवा संघ बदनावर )
"मानव की माँग"
'' मानव-जीवन की तीन विभूतियाँ हैं-
निश्चिन्तता, निर्भयता और प्रियता।
जो कुछ हो रहा है, वह मंगलमय विधान
से हो रहा है-ऐसा मान लेने पर
निश्चिन्तता आती है।
जो शरीर, प्राण आदि किसी भी
वस्तु को अपना नहीं मानता, वह
निर्भय हो जाता है।
जो 'है' वही मेरा अपना है- इसमें जिसने
आस्था स्वीकार कर ली, उसी में
प्रियता उदित होती है।
निश्िचिन्तता से शान्ति; निर्भयता
से स्वाधीनता तथा प्रियता से रस की
अभिव्यक्ति होती है। यही मानव की
माँग है।''
- ब्रह्मलीन संत परमपूज्य स्वामी
शरणानन्द जी महाराज
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