[3/12, 12:47] सत्यजीत तृषित: क्या कोई भी व्यक्ति या मानव प्रथम श्वांस से अंतिम श्वांस तक एक ही धर्म का निर्वह करता है ।
बदलती धारणाओं में बाहरी स्वरूप बदलता रहता है , परन्तु मूल में धर्म नहीँ बदलता , धर्म वह आवरण है जिसने जगत में आने से जाने तक आपको सुरक्षा दी ।
सुविधा और सुंदरता हेतु जीव वस्त्र बदलता रहता है , पर अपनी चमड़ी काली भी हो , दाग या फोड़ो के निशान हो तो भी बदलने की सोच नहीँ सकता ।
मूल में ना धर्म को ग्रहण किया जाता है , ना ही त्यागा जा सकता है , वह तो वैसे ही जैसे अपनी चमड़ी (खाल) --- सत्यजीत तृषित ।।
[3/12, 12:47] सत्यजीत तृषित: चराचर जगत में अधर्म कुछ नहीँ ।
सिंह के जीवन हेतु अन्य जीव का मरण है । जीवित रहना सिंह का धर्म और स्वयं और समूह की सुरक्षा मृग का धर्म । विपरीत अर्थ में दोनों अधर्मी हुये । जी सिंह के विचार में मृग अधर्मी हुआ जो उसे भूखा होने पर और व्याकुलित कर रहा है ।
मानव का मूल धर्म मानवता है , और इसी मानवता में रह वह समस्त की पूर्ति कर सकता है , न ही एक सीढ़ी ऊपर , ना ही एक सीढ़ी निचे । मानव का मानव होना ही आज दुर्लभ है , ऐसा होने पर तो जगत उन्हें सन्त कह उठता है । मानव का दुसरा नाम ही साधना है और मनुष्य की विशेषता मनन है । मानव होने मात्र से साधना पथ खुल जाता है । लक्ष्य से पूर्व नाना भौतिक स्वाद लालसा लक्ष्य से डगमगा देती है । कभी कभी तीर्थों को जाती पदयात्री को मार्ग में इतने प्रलोभन मिलते है कि वह लक्ष्य के समीप पहुँच पुनः स्वयं और भौतिक लालसा से पदयात्री ही बना रहता है ।
मनुष्य की मूल शत्रु भौतिकता है । जिसे वह जुटा ही रहा है । क्योंकि जो मनुष्य भगवत् धाम भी बिना सुविधा और भीड़ के नहीँ जाता , वह अकेला तब भी जाना स्वीकार नहीँ करेगा ।
आवश्यक वस्तु भगवत् धाम में स्वतः मिलती है , भौतिकताओं को वहाँ जुटाने से बेहतर है , भौतिकी धाम की चाह न करें , क्योकि मूल में सुविधा अनिवार्य है धाम नहीँ । जब धाम अनिवार्य और सुविधा गौण हो तब धाम वास में रस वृद्धि है । भौतिकी जीव को सच्चे धाम वासियो की यथेष्ट सेवा ही कर लेनी चाहिए । और एक बात मूल में सच्चे भगवत् प्रेमी तो सुरक्षा घेरे को पार कर मन्दिरों में भगवान तक पहुचने कठिन हो रहे है । पागल समझ उन्हें तो डंडे मार भगा दिया जाता है । अतः यहाँ भगवान को पीड़ा हो तो वह निश्चित उनसे बाहर मिलेंगे ही । और इस तरह जगत भगवत् मय होगा , क्योंकि आज प्रसाद भी क्षुधित को नहीँ मिलता , सीधा पहुँचता है कथित v.i.p. के फ्रीज़ में । कई दिन में सुख कर , बाहर वहीँ किसी याचक तक पहुँच ही जाता है , अथवा उन जीवों तक जिन्हें मनुष्य के मन्दिर प्रवेश नहीँ देते । ऐसा हुआ तो वह प्रसाद सच में भगवान पा चुके है । और केवल vip ही उसे पायेगें तब भगवान ने उसे पाया नहीँ । प्रसाद की स्वयं की गति है , वह भगवत् प्रेमी या भगवान के प्रिय जीवो तक जाता है और आता है । अतः जिन्हें भी घर बैठे ऐसी सुविधा प्राप्त है वह प्रसाद को मिलते ही वितरित कर एक कण ग्रहण करें ।
कथित बुद्धिमान मानव जाती ने समूह बनाये और हित कार्य समूह में बाँधे ,
भगवत् विधान सर्वहितकारी है । और यहाँ कथित समूह भगवत् विधान का ही एक अंग भी है पृथक् नहीँ ।
हृदय अगर सेवक है , वहाँ सेवा की लालसा है , तब जीवन सच्ची गीता है। और ऐसे जीव भगवान को पार्षद समान प्रिय है । हृदय से निकलती सेवा की लालसा में अहम् वसर्जित हो जाता है और लौकिक धर्म का यह आवरण आपको भगवत् पथ पर उछाल सकता है -- सत्यजीत तृषित ।।
[3/12, 12:47] सत्यजीत तृषित: भगवत् विधान सर्वदा मंगलमय है ।
भगवान से किसी भी याचना की अपेक्षा यह श्रेष्ट हो कि भगवान की इच्छा को ही जीया जावें , उन्हें कहने की आवश्यकता नहीँ कि मेरा मंगल करिये । मंगल विधान में अमंगल कुछ प्रतीत भी हुआ तो वह जीव की निज इच्छा से । वरन् भगवान सदा मंगलकारी है ।
भगवान से अपनत्व अनुभव हो तब उनका मंगलमय वात्सल्य सागर समझ आता है , वरन् अपनी इच्छा से जीव चॉकलेट खा कर दाँत खराब कर ही लेता है , भगवान तो माँ की तरह उचित विधान ही करते है। शिशु को मालिश में दर्द होता है , रोता है तो भी हित उसी का है ।
सच्चे भगवत् प्रेमी को भगवान से सावधान रहना चाहिये , उन्हें एक शौक है सेवा का , दासानुदास हो वह असंख्य बार सेवा किये है । अतः सच्चे रसिक प्रेमी कहीँ भी सेवा ग्रहण नहीँ करते , क्योंकि भगवान सर्वभूत है , सर्वत्र है , और वह सेवक के चित् में पूर्ण प्रकट हो जाते है । देखने में जीव सेवा करता दीखता है , पर सेवा वह करते है और यह प्रेमी के नेत्र देख लेते है ।
[3/12, 12:47] सत्यजीत तृषित: शायद यह बात कुछ अजीब लगे , विचित्र लगे , शेयर ना कीजियेगा --
जिस तरह जीव सच्चीदानन्द स्वरूप प्राप्त हुए बिन अतृप्त है । मनुष्य के सारे प्रयास भगवान होने के है , वह माया से बंधा है और मुक्त हो उड़ना चाहता है । वैसे ही ईश्वर योगमाया के आश्रय से अपनी सत्ता को भूल जीवत्व के पूर्ण रस को पीने हेतु लालयित है । योगमाया ईश्वर को उनका ऐश्वर्य भुला देती है , अतः वह एक्टिंग नहीँ करते सच में रोते है , खेलते है , नाचते है गाते है , यहाँ वह भूले रहते है अपना ही स्वरूप , याद रहे तो रसास्वादन में बाधा हो , आवश्यक जगह योगमाया सचेत कर देती है । अपनी ही आह्लाद वृति में रमण करने हेतु योगमाया का आश्रय लेते है । माया जीव को उसके मूल स्वरूप भुला देती है , योगमाया जीव और ईश्वर के योग हेतु दोनों को ही मिलन हेतु दोनों को ही एक सतह पर लाती है ।
यह विवर्त है , जीव की भगवत् लालसा और स्व आह्लाद में गोते लगाने को ईश्वर की माधुर्य लालसा । त्वमेव केवलम् , यही प्रेम की वृति है दोनों और से ।
इसे शेयर ना कीजियेगा । यह पचेगी नहीँ , कि वह प्रेम में ईश्वरत्व भूलना चाहते है । क्योंकि वह निर्विकल्प , निश्चल , निर्मल , निराकार , स्पंदन रहित , लालसा आदि रहित , स्व में स्थित भी है । प्रेमी चित् के अतिरिक्त वह अधिनायक रूप में सतर्क है । -- सत्यजीत तृषित
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