राधे राधे
मौन भाव चीन्हहिं कान्हा जब
लखि राधिका कान्हा को प्रथम बार
द्रवित ह्रदय में छिपे तरल विचार
सलज्ज दृगों में तैरने लगे बारंबार।
ब्रीड़ा से बोझिल कर झुकी पलकें
रक्तारुण कपोलों पर इठलाती अलकें।
सिमटते अधरान,अर्ध खिली मुस्कान
लता मध्य,पल्लवित कुसुम समान।
सलज्ज तन पर रक्तांशुक परिधान
या धवल वस्त्र में- शीतल पहचान।
पुलकित वदन प्रीति-सा प्रतीत रहा
निज दर्शाता,अनचाहे ही खिंचता
मन सतत पूर्ण पिय को अर्पित हो रहा।
ध्वनित गुँजित शब्द-उच्चारण में
एक अनोखा सा मौन छाने लगा
मौन में चुपके से कान्हा आने लगा
खामोश पदचाप में पिय का
अहसास समाने लगा।
राधा का अस्तित्व ही अब कान्हा होने लगा।
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कह कर गये हो कान्हा
मैं मिलूँगा
फूलों में,कलियों में,लहलहाती अमराइयों में
भक्त-प्रेमी के हृदय की अनत गहराइयों में
ब्रज-बालकों की खिलखिलाती निश्छल हँसी में
प्रत्येक आगन्तुक के चरणों से लिपट कर पूछती
बाट जोहती ब्रज-रज में
क्योंकि मैं प्रेम हूँ,जो चले जाने के बाद भी
प्रेमी हृदय से कभी नहीं जाता है
स्वप्न में, ख्यालों में, भावों में
सतत जागृत हो जाता है।
पुन पुन: छले जाने के बाद भी
एक बार फिर छले जाने की बाट में।
(डाॅ.मँजु गुप्ता)
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