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नित्य विरह

अभाव (नित्य विरह)

ब्रह्म , परमात्मा और भगवान तीनोँ अनुभूतियों में प्रत्येक की ही एक एक स्थिति की अवस्था है  ।
एक से दूसरी स्थिति में जाना कठिन है , क्योंकि उस स्थिति में मिला रस आगे बढ़ने में बाधक हो सकता है । ब्रह्मानुभूति से परमात्मस्वरूप अनुभूति फिर भगवत् अनुभूति ।
जिसे पूर्ण रस मय होना हो वह किसी स्थिति में नहीँ बंधता । प्रत्येक स्थिति पाकर आगे की लालसा में बढ़ता रहता है । अभाव ही पथ आगे बढ़ाने में सहयोग करता है ।
नित्य लीला में जो भी होते है वे परिपूर्ण स्थिति लाभ करके भी उस स्थिति में बंध नहीँ पाते या जुड़ नहीँ पाते , वह तृप्त होकर भी अतृप्त ही रहते है । नित्य मिलन के बीच ही नित्य विरह अनुभूत् करते है । मिलन में विरह होने से मिलन सार्थक नहीँ होता , वैसे ही विरह भी सार्थक नहीँ , वह नित्य मिलन को विरह नहीँ सिद्ध कर सकता है । नित्य मिलन में विरह नहीँ रहता ऐसा नहीँ हो पाता । प्रत्येक स्थिति पूर्ण है , भगवान अखण्ड है , अतः उनका खण्ड हुआ ही नहीँ , वहीँ भगवान अखण्ड होने से सभी स्वरूप में अनन्त जगत में लीलामय है ।
भगवदरूप के मध्य वहीँ एक ही वस्तु चिदानन्दमय अखण्ड अद्वितीय सम्राट भाव के भी पार होकर अचिन्त्य माधुर्य भाव के रसास्वादन में स्वयं में स्वयं ही विभोर है ।
गहनता में प्रत्येक स्थिति पूर्ण है , फिर भी चरम की कोई सीमा नहीँ ।
जैसी दृष्टि वहीँ तक वह देख उसे ही चरम पूर्ण रस जान रुक जाता है और चरमत्व का अनुभव कर लेता है । जबकि पूर्ण स्वरूप के चरम को कोई भी विधि आदि लांघ नहीँ पाई ।
पाकर भी आशा रहना , परिपूर्ण रस की तृप्ति में भी बार बार अतृप्त रहना , यह जो भाव के मध्य अभाव की अनुभूति है , यही नित्यानन्द स्वभाव का खेल है , यह अभाव ना हो तो यह रस मय खेल पुनः पुनः ना हो । यह अभाव कुछ भी नहीँ क्योकि यह व्याकुल जिस रस हेतु है वह प्राप्त ही है , फिर भी यह सब कुछ है , इसके ही उदय से पुनः पुनः प्रगाढ़ता बढ़ती है । सब कुछ इसी से होता है क्योंकि यह लालसा उदय करता है फिर भी यह होकर भी नहीँ ही लगता है । दोनों ही तरह से यह सब कुछ है और कुछ भी नहीँ । यहीँ अद्वय (एकरूप) रस है । सत्यजीत तृषित । जय जय श्यामाश्याम ।

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