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हित सृंगार

श्री प्रिया की सहज सलज्ज मुस्कान को देखकर प्रियतम् मोहन का मन प्रेम विमुग्ध और लुब्ध हो गया । उनके रूप लालच को देखकर मूर्तिमान लालच भी ललचा उठा ।
श्री प्रिया जु का नासा मौक्तिक कपोल पर आलम्बित झीनी अलक से उलझ गया।जिसे सुलझाने के बहाने रूप दर्शन के रसिक प्रियतम् ने उसे और अधिक उलझा दिया
रूपनिधि प्रिया जो परम् विचक्षणा है , लाल की चतुराई समझ गई और तब उन्होंने लाल के कर कमलो को झटक कर हटा दिया
रसिक प्रियतम प्राणप्रिया के जिन अंगों का अपने नयन कर से स्पर्श करना चाहते है , परम् विदग्धा (जिस सुंदरता को कम ना किया जा सके बढ़ती हुई सुंदरता )सुंदरी प्रिया उन अपने अंगों को पहले ही वसनाच्छादित कर (वस्त्र से ढक लेती )लेती है ।
युगल किशोर दोनों ही अपनी अपनी रस विधाओं में परम् प्रवीण है किन्तु प्रियतम् की जब कोई चातुरी सफल नहीँ हो पाती , तब वह दीन हो कर चाटु परायण हो जाते है
श्री प्रिया मुख की और जोहते हुए अत्यंत दीन वचनो में नवल किशोर प्रियतम् उनके श्री चरणों में जावक चित्र रचना करने की याचना करते है ।
जावक यानी मेहँदी
तब श्री लाल के मन की उत्सुकता ललक एवम् अधीरता को देखकर तथा उनकी मनस्थिति को समझकर नागरी प्रिया मुस्कुराने लगी
तब प्रियतम ने श्री प्रिया की स्वीकृति का अनुमान लगा कर उनके मंजुळ विमल श्री चरणों को अपने सुकोमल करों पर धारण किया और भाव विभोर होकर अलक्तक रस से उन्हें चित्रित करने लगे
श्री प्रिया की पद नख मणि में प्रियतम् की मुखच्छवि इस प्रकार प्रतिबिंबित हो रही है जैसे शशि और कमल दोनों श्री प्रिया के चरणों में एक साथ सुशोभित हो रही हो
अटपटी बाते है प्रेम की
बरनत बनै न बैन ।
धरति चरन प्यारी जहाँ
लाल धरत तहाँ नैन
नव नागरी प्रिया की जब और जैसी रूचि होती है तदनुरूप ही लाल का मन भी उसी ओर प्रवृत्त हो जाता है एतवता वे प्रतिक्षण प्रिया की भृकुटि जन्य भाव तरंगों को ही देखते रहते है
प्रिया अत्यंत छविमयी सुंदरी हैं  अतः किसी की कुदृष्टि लग जाने के भय से प्रियतम् उनके सुंदर मुख पर दिठोना लगा देते है
प्रियतम् की उफनती प्रेम गति को समझ कर प्रिया वस्त्राभूषणों द्वारा अपनी छबि को सदैव यत्नपूर्वक छिपाये रहती है एवम् अपने प्रेम को भी अंतर में दुराये रखती है
अंग प्रत्यंगों से प्रतिक्षण प्रस्फुरित होने वाली नव नव छबि प्रभा को छिपाने में प्रिया अपने आपको पूर्णतः असमर्थ पाती है । यदाकदा जब प्रियतम् की दृष्टि उनके किसी सुअंग को छु जाती है तो उनके कमल जैसे नेत्र बारम्बार जलपुरित हो उठते है । प्रियतम् की इस प्रेम विवशता को देख कर कोमलांगी प्रिया सतत प्रयत्नशील रहती है कि उनके अपने अंगों का सहज रूप प्रियतम् न देख पाएं , इसलिए वे अपने अंगों को वस्त्राभूषणो से छिपा तो लेती है किन्तु उनके चंचल नेत्र नियंत्रण में नहीँ आते ।
जहाँ इस प्रकार का अद्भुत प्रेम है , वहाँ मान के लिये अवकश ही नहीँ है । युगल नित्य आसक्ति रस में निमग्न है और उनकी आसक्ति इस पराकाष्ठा की है कि नेमादि नैमित्तक  रस वहाँ सर्वथा अप्रासंगिक है
जब प्रिया प्रसन्न मुद्रा में अनुराग पूरित दृष्टि से प्रियतम् की ओर देखती है , तब प्रियतम् अपने को धन्य अति धन्य मानते हुए उनके चरणों की और विनत होने लगते है
प्रिया की सुंदर छवि को निहारते हुए प्रेम मगन हुए प्रियतम् पलकें गिराना भूल जाते है , तब ऐसा प्रतीत होता है कि रूप के तालाब में कमल जलमग्न हो रहे हो
श्री लाल के अनुराग रंग रंजीत रतनारे नेत्रों की अपूर्व सुंदरता को देख कर ऐसा प्रतीत होता है मानो उनके अंतर का अनुराग भीतर न समा कर बाहर नेत्रों में झलक आया हो
हे सखी । प्रियतम के मुखारविंद की दशा भी विचित्र है , जब वे प्रिया के अधरासव का पान करते है , तब तो आनन्दित रहते है अन्यथा उनका मुख कमल उदास प्रतीत होने लगता है
रस् विदग्धा नागरिप्रिया श्री लाल को अपने अंक में विराजित करके अधर सुधा का पान कराती हुई ऐसी प्रतीत होती है मानो मूर्तिमान सुधाकर ही कमल को प्रेमामृत पान करा रहा हो
जब श्री लाल जी प्रेम विथकित होकर देहानुसन्धान खोंने लगते है । तब प्रिया लज्जा रुपी नेम के निवर्णापूर्वक उन्हें अपने हृदय से लगा कर सम्भाल लेती है
श्री युगल श्यामाश्याम छबि धाम है । रस निधि , प्रेम की अमित राशि एवम् गुणों के सागर होते हुए भी अतिशय उदार है । दोनों एक ही प्रर्म रंग में रँगे हुए निरन्तर निकुँज केलि परायण है
रसिक युगल नित्य ही यौवन मद  नव नव प्रेम मद , रूप मद , मदनमोद के मद , रस मद , रति मद , और प्रेम उत्कंठा के मद से उन्मत्त हुए प्रेम की विनोद लीलाओं में मगन रहते है
हमारे रसिक रंगीले सुकुमार युगल , जिस विमल विहार में तन्मय रहते है वह विहार मधुरातिमधुर और अनुपमेय है
वह समस्त रसो का सार और सुखो की चरम सीमा है। विलासों का भी मूर्धन्य विलास है
प्रेम की सर्वोपरि अवस्था है और नित्य ही सब रसो का राज  रस और एकच्छ्त्र विशुद्ध विहार है , जहाँ हमारे युगल नित्य नव नवायमान रूप सौंदर्य की अद्भुत छटाओं को देख कर विस्मित रह जाते है और प्रतिक्षण उनकी बढ़ती हुई प्रेम तृषा उन्हें ऐसा आत्म विस्मृत कर देती है कि वे जके थके से रह जाते है । युगल की ऐसी एकात्म प्रेम स्थिति में विरह के आभास की कल्पना भी भयावनी होती है ।
वृन्दावन के नित्य नवल निकुँज विहार में रसिक शेखर युगल नित्य नव वर वधु है यानि नित्य दम्पति है । उनका प्रत्येक मिलन नव समागम ही है ।
नित्य नव किशोर दम्पति कोक की कलाओ में परम् कुशल है । अति विचित्र ये नागर नागरी सूरत केलि के आनन्द समुद्र में सतत् लीन रहते है
सूरत क्रीड़ा की तरंगों में आनन्दित युगल नागर परस्पर की लालसा और उत्कंठा को मन मन समझ कर नेत्रों में हँसते है
जब परम् सुकुमारी प्रिया विहार श्रम से थक जाती है , तब प्रियतम अपने पीताम्बर के छोर से मन्द मन्द बयार (पंखा) करने लगते है
प्रेम विहार में प्रिया के गौर मुखारविंद पर हल्के से लटकी हुई अलकवली (बालों की लट ) अपूर्व रसमयी शोभा को प्रकट करती है
उनके वस्त्र अलंकार शिथिल हो जाते है , बिखर जाते है , और विशाल नेत्र आलस वलित हो जाते है
आलस्य मद पूरित प्रिया के छबिमय रतनाने नयन ऐसे प्रतीत हो रहे है मानो कामरति ने कमल को प्रेम के रंग में रन्जीत कर डाला हो
रतनारे नेत्रों में श्याम पुतलियो की छबि छटा का वर्णन असम्भव है । फिर भी लगता है मानो भ्रमरो को अनुराग के रंग में झकोर दिया हो
प्रेम के विनोद विलास में सम्पूर्ण रात्रि जागने के कारण युगल की वाणी लटपटाई हुई है
और अंगों में श्रम का आलस्य छा रहा है , उनकी ऐसी सूरत क्रीड़ा के बाद की छबि का दर्शन करके सखियों के नेत्र सरस हो रहे है
👌👌👌👌
रसिक युगल ने समस्त रात्रि अपने मनोरथों की सिद्धि में व्यतीत की है ,  वे प्रातः एक ही चुनरी में लिपटे हुए खड़े है ।
प्रेम के जाल में नख शिख पर्यन्त उलझे हुए है और सरस गाढ़ालिंगन में बन्ध से गए है ।
ध्यान दीजिये एक ही चुनर में दोनों है सखियां देख रही है ।
कितना प्रेम मय दर्शन है । आबद्ध मिलन और एक ही चुनर
तो भी उनका उत्साह कम नहीँ हो पा रहा है
सुगन्ध से सनी उनकी खुली केश राशि और खण्डित हारावलि (टूटी हुई माला) की रूप शोभा का दर्शन करने के लिए सखियों में शत शत उत्साह की वृद्धि हो रही है । बावरी हो रही है सखियां। वैसा दर्शन लालसा जगाओ सखियों , तब होगा न
प्रेम में उन्मत्त रंग मगे दम्पति ऐसे शोभा दे रहे है मानो प्रेम के रंग में झकोर दिए गए हो ।
युगल रसिक परस्पर एक दूसरे के शिर के निचे उपवर्हन की भाँती भुजाये अर्पित किये मुख से मुख मिलाये शोभित है । ऐसा दर्शन सखियों का परम् सुखमय जीवन है
रसिक लाडिली लाल कभी परस्पर में वक्षस्थलों का , कभी केश , कभी बांह , कभी मुख अवलोकन कर चुम्बन आदि का स्पर्श करते है । दोनों ने प्रेम के ही वस्त्र धारण किया है । अन्य वस्तु आवरण का उन्हें ध्यान नहीँ है । यह दूसरे दर्शन में से है
प्रेम रासि दोउ रसिक वर , एक वैस रस एक
निमिष न छुटत अंग अँग , यहै दुहुँनि की टेक
अद्भुत गति सखि प्रीति की , कैसेहुँ कहत बनैं न ।
थोरेहुँ अंतर निमिष कौ , सहि न सकत पिय नैन ।
सत्यजीत तृषित

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