ब्रज लीला का तत्व भली प्रकार समझने के लिए सुषुप्ति रहस्य को समझना आवश्यक है । जहाँ सुषुप्ति नहीँ और जहाँ स्वप्न भी नहीँ वहीँ प्रकृत जगत अवस्था है । उसी को महाजागरण या परचैतन्य कहकर निर्देशित किया जाता रहा है । वस्तुतः जगे रहना ही चेतन रहना है । वहीँ चैतन्य है । सुषुप्ति अचेतन भाव या जड़त्व है । जो चेतन है , वह वस्तुतः ही चेतन है , अचेतन नहीँ । फिर भी स्वतंत्रता के वश से वह आंशिक रूप में अचेतन हो सकता है । यह अचेतन होना ही सुषुप्त होना या निद्रित होना है । इसी का नाम आत्मविस्मृति है । किन्तु यह आत्मविस्मृति स्वेच्छा मूलक है , स्वतन्त्रता से है । इसलिये यह भी केवल एक अभिनय है । वस्तुतः चैतन्य की नाट्य लीला इस सुषुप्ति रूप या आत्मविस्मृति रूप यवनिका के ग्रहण से ही प्रारम्भ होती है ।
चैतन्य का अपनी इच्छा से अपनाया हुआ यह सुषुप्त भाव आभास मात्र है । महाचैतन्य जागृत ही है , और अत्यन्त क्षीण अंश में मानो सुक्षुप्त या आत्मविस्मृत हो जाता है । यह उसकी स्वभाविक क्रीड़ा है । इस क्रीड़ा को स्वभाव , लीला , अविद्या , अथवा महेच्छा जो भी कहा जाए उसे अस्वीकार नहीँ किया जा सकता । मानो महाचैतन्य की 15 से भी अधिक परिमाण विशिष्ट कला चैतन्यस्वरूप में ही प्रतिष्ठित रहती है । किञ्चित् न्यून एक कला आभास रूप में सुषुप्त हो जाती है । लीलामयी सृष्टि की धारा इस कला में से होकर फूट निकलती है ।
सत्यजीत तृषित । जय जय श्यामाश्याम ।
॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ ...
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