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लाखों बार तपाये उज्ज्वल शुद्ध स्वर्ण-सम जिनका प्रेम

लाखों बार तपाये उज्ज्वल शुद्ध स्वर्ण-सम जिनका प्रेम
चन्द्र-चकोर,मेघ-चातक-सम नित्य परस्पर जिनके नेम
परमानन्द-धाम जो दोनों, महाभाव-रसराज अनूप
शुचि सौन्दर्य असीम सिन्धु माधुर्य नित्य चिन्मय सद्‌रूप
उन राधा-माधवकी छवि मैं निरखूँ दिव्य मधुर सब ओर
उनकी चरण-धूलि-रति तजकर,चाहूँ नहीं कभी कुछ और
सुनूँ न कुछ भी कहीं और कुछ,नहीं उचारूँ मुखसे अन्य
राधेश्याम-नाम-गुणमें ही लगा रहे मन सदा अनन्य
युगल-चरण-रज-प्रीति निरन्तर पल-पल हो वर्द्धित अभिराम
मिले युगल-सेवाका मुझको छोटा-सा को‌ई कुछ काम
राग-द्वेष, कामना-ममता छोड़ रखूँ मैं अन्तर-शुद्धि
सखी-मञ्जरीके अनुगत रह,कर संयम मन बुद्धि
करूँ सदा सेवा जो मुझको मिलै वही, मञ्जरी-प्रसाद
धन्य सदा समझूँ जीवन मैं, भरा रहे मन शुचि आह्लाद।

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