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रसिक कौन है

रसिक कौन है ?
अपराध होगा , किञ्चित् भी कहना , रसिक स्वयं तो कभी इस विषय पर अश्रु अतिरिक्त कोई अभिव्यक्ति ना देकर पुलकित हो यही कहेगे , मैं का जाणु , सन्मुख युगल बसे , जब तक  तब कछु काँ कहू  , सखी ।
फिर भी युगल चाह है , किन्हीं की भावना है तो कुछ कहू --
रसिक वह है जो किञ्चित् एक क्षण श्यामाश्याम की पृथकता की कल्पना , उनके द्वेत की भावना नहीँ कर सके , रस , रसक्षेत्र , रसराज , रसिका में भेद ना हो जिस चित् में , वह रसिक है । जिसकी वाणी से राधा कहने के लिए कृष्ण आवेशित हो , और कृष्ण पुकारने को श्री राधा वह रसिक है । जिसका जीवन का प्रति स्पंदन , भाव क्षेत्र , सर्वस्व श्यामाश्याम के मिलन हेतु ही रचा बसा हो । भाव राज्य में युगल की एक रूप झाँकि को जो जीवन पर्यन्त अबाध रस में पीना चाहे ,,, वह रसिक है। 
जिसके चित् की एक भाव झाँकि की सिद्धि के लिए श्यामाश्याम निभृत निकुँज में नित्य युग्लभाव की एकत्व मयी दिव्य आभा से छूटे ही ना ।
जिसने श्यामाश्याम को सदा , सर्वदा , दृश्य भेद को लीला वर्धन स्वीकार कर , एक ही देखा , एक ही निहारा , एक ही देखने की चाह की , जिसके चित् में श्यामाश्याम के मिलन की नव नव झाँकि उत्पन्न हो , वह रसिक है ।
तनिक भी भेद को जो जग में कह दे वह रसिक नहीँ । रसिक का एक ही कष्ट है , श्यामाश्याम का दो होना । दो रूप में झांकना भी कष्ट है , दो दिख भी जावें तो दोनों को समीप , अभिन्न ही चाहवै , वह भाव रसिक है ।
पूर्णत: जहाँ अविरल युगलरसराज और रसिका श्री किशोरी की मिलन झाँकि निभृत निकुँज की परम् उत्कृष्ट उज्ज्वलतम झाँकि से जो नयन छके हो , वह ही नित्य रसिक है । सभी स्रोत नेत्र , अधर , वाणी , कर्ण , नासिका भी पृथक् रस नहीँ एकत्व मयी झाँकि की ही सुगन्ध , स्वर , स्पंदन , रोमांच से ही अभिसारित हो वह रसिक है ।
जिनके चित् में द्वेत ,यानि उनका दो होना केवल लीला रस वर्धन का अंग हो और इस द्वेत से भीतर अगन ही लग उठे , मिलन झांकी के दर्शन की छटपटाहट में जो यह दो होना युग सम बिताये वह रसिक है । और मिलन दर्शन में श्यामाश्याम चाहे तो भी जो अधिकार से तनिक और , थोडा और निहारने का हट कर झाँकि को युगों तक देख भी पल भर सा ही समझे वह "रसिक" है ।
स्यामास्याम की ही ही वस्तु जो हो वह रसिक है । स्यामास्याम ही जिसके नेत्र का प्रकाश और अंधकार भी हो , वह ....।।
जिसे दूसरी अन्य वस्तु , पदार्थ , तत्व  , ज्ञान का होना पन भी अन्तस् में बोध न हो , किसी बाह्य वस्तु का बोध से निषेध त्याग नहीँ , अपितु सभी में उन्ही की भावना हो , अन्यत्र  वस्तु में केवल यह बोध हो उनकी ही है ।
जिसके सर्वस्व श्यामाश्याम ही हो , जिसके प्राणधन श्यामाश्याम हो । कहने को नहीँ सच में वहीँ हो , प्राणधन । जिसके होने की सिद्धि में युगल की उन संग सिद्धि है , युगल से तनिक विक्षेप ही जिनकी वास्तविक मृत्यु है , वह ही तो रसिक है न ।। सत्यजीत तृषित । क्षमा , श्यामाश्याम , और परिकर वृंद ।।।

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कुंजन तें उठि प्रात गात जमुना में धोवैं।
निधुवन करि दंडवत बिहारी को मुख जोवैं
करैं भावना बैठि स्वच्छ थल रहित उपाधा।
घर घर लेय प्रसाद लगै जब भोजन साधा
संग करै भगवत रसिक, कर करवा गूदरि गरे।
बृंदावन बिहरत फिरै, जुगल रूप नैनन भरै
हमारो वृंदावन उर और।
माया काल तहाँ नहिं व्यापै जहाँ रसिक सिरमौर
छूटि जाति सत असत वासना, मन की दौरादौर।
भगवत रसिक बतायो श्रीगुरु अमल अलौकिक ठौर

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