मैं और मेरी ज़िन्दगी
अब दो बात हो गई
ज़िन्दगी ख़ुदा हो गई
उसकी जुदाई सज़ा हो गई
पहले मैं ही था
कहीँ तुम भी
अब तुम ही हो
कहीँ मैं क्यों ??
तुम संग हो
तुम ज़ुदा भी हो
मुलाक़ात में भी
मिलती दूरियां ही
दूरियों में मिलती
सदाएँ पिया की ही
चाबुक भी गिरते दिल पर
रसीले फूल सा छुते भी तुम
यह रोग ही क़त्ल था
या यहीँ ज़िन्दगी
ग़र अब तुम मेरे
तो क्यों नहीँ बाँहो में मेरे
अगर तुम ना हो मेरे
तो लगा दो न मेरी निगाहोँ पर पहरे
क्या तुम मिल रहे हो
साँसो में उतर रहे हो
आँखों से बह कर छू रहे हो
मुझे तुम ही देख भी रहे हो , है न
या तुम मुझसे ख़फ़ा हो
तुम इस दफ़ा भी मुझसे रूठे हो
मेरी निगाह उठी
पर पलकें तुमने ही गिराई
मिल कर भी ना मिले
कैसी यह प्रीत बेगानी
यहाँ सब मरते
और सब खुद ही जी लेते
क्यों तुम आ गए
जब मरना ही था तो
ज़िन्दगी क्यों बन आएं
और आएं , फिर छिप भी गए
अब बोलो ना
मरुँ या जियूँ
और किसे मारूँ
और किसे जियूँ
हो संग , हो यही
पर तुम ही कहो न
तडप तडप अब आँखे मर ही गई
खोजती तुम्हे साँसे अब सो ही गई
अब तुम यूँ मुझमेँ साँस भी लेते हो
मरने भी नहीँ देते , जीने भी नहीँ देते
हाय , बहुत बिन कहे
तलब पूरी की तुम्हारी
अब आओ तुम एक
आरज़ू मेरी अब भी दहकती है
मरी हुई तितली भी
किसी हसरत में मचलती है
ना , तुम ना आना
ना आना , फिर तुम ना जा सकोगे
जो गए तो , हाय !!
क़त्ल सस्ता भी हो सकता था न
यह क्या किया तुमने ।।।
और क्यों ???
कर लो अपनी हसरत
जैसा तुम चाहो , कर लो
-- सत्यजीत तृषित
सत्यजीत तृषित:
कौन हो तुम ??
मुझमें छिपे
मुझमेँ से बोलते
वहीँ सुनते
कौन हो तुम ?
यह पंछी ,
यह आकाश
यह चाँद
यह बदलते बादल
क्यों अपने हो गए है अब
सच , अब वह तो ख़ामोश है
और ना जाने कौन -क्या कह जाता है
अब वह बोलते है
मैं सुनती हूँ
अरसे से मौन हूँ
सच अरसे से मौन हूँ
-- सत्यजीत तृषित
चलो मुझे तितली बना दो !!
ज़रा सीख लूँ , अनजानी महक के पीछे कैसे भागना है
चलो मुझे बादल बना दो !!
जरा सीख लूँ , कैसे बरसना है यूँ की फ़ना हो जाना है
चलो मुझे पत्ता ही बना दो !!
सीख लूँ , जब तुम हवा बन छुओ तब कैसे खिल उड़ ही जाना हो
चलो तो मुझे परिंदा बना जाओ
उड़ उड़ ढूँढती फिरुँ
कभी यहाँ , कभी कहाँ
कभी आकाश के पार
कभी ज़मी के अंदर
और जब तुम मिलो
तब नाचूँ मयूर सा
गांऊँ पपीहे सा
झूमूँ बहारो की तरह
तेरा आँगन मिला
तो परिंदों सा वह झनक
वह उत्स भी दे दो
कि बस नाचूँ
बस गाऊँ
--- सत्यजीत तृषित
बड़ी रहमत से बादल लौटे है
बेमौसम ही सही बरस जाने दो
वरना यहाँ गुल भी अब चुभने लगे थे
लूँ भी कोहरा लगती ऐसी ख़लिश थी
नमी की चाह पत्थर भी बर्फ हो जाते है ।
सूखते पिंजर को भी तलब होती है काश वह गिला होता , कुछ शर्म से ढका होता
सत्यजीत तृषित:
मौसम देख बरसे वह तो सलीक़ेदार है
होंगे कोई मेरे ही अपने , पर हम तो बेमौसम की फुहार है
सत्यजीत तृषित:
कभी तुम रूठ भी जाया करो
कभी सलीक़े से खफा हो जाया करो
यह ईश्क क़त्ल करने लगे कभी फिर ज़िन्दगी बन जाया करो
सदा हँसाते हो , सजा देते हो , कभी बेहाल भी कर जाया करो
सत्यजीत तृषित:
कोई रुकता नहीँ ,यह ईश्क की डगर है
यहाँ वह आता नहीँ जिस जहन में अगर-मगर है -
तृषित
सत्यजीत तृषित:
बेवजह जो हो गुजरे उसकी भी वजह खोज लेती है दुनियां
बे जुबाँ ईश्क की साँसों को लफ़्ज़ो में पीरो लेती है दुनियां
सत्यजीत तृषित:
तू तेरी कह लें
मैं मेरी सुन लूँ
तेरे मेरे यूँ बिखरने से
किसी अहसास का सिमटना छूटता है ।
- तृषित
आशिक़ कुछ सलीक़े में कह देते है लोग
सच कह दे तो जला डालने को मजनूं के घर महफ़िल सज जाएं - तृषित
सत्यजीत तृषित:
यहाँ मैले लगते है उसके दीवानों के
या तो उसकी हसरतें कुछ ज्यादा है
या इनकी हसरतें अब भी ज़िंदा है
वरना क्यों अलग रंग दीखते एक ही गुलदस्ते में
सत्यजीत तृषित:
पतझड़ बाद आता ही है बसन्त
मजनूं को कोई मलाल किस दौर में रहा
सत्यजीत तृषित:
फ़क़त एक बस्ती नहीँ
एक मुल्क हो जाएं
उसके दिलदारों का आज
फिर भी वह है प्यासा
यहाँ महफ़िलों में उसकी याद में
जाम खुद पी लेती है दुनियां
शायद ही कोई उसके
होंठो से पैगाम है लगाता
सत्यजीत तृषित:
प्रीति वह नहीँ जो मिल गई है
प्रीति वह भी नहीँ जो ना मिलेगी
प्रीत वह है जो मिल रही है
प्रीत वह है जहाँ मिलन पुष्प है
प्रीत वह है जहाँ संग तब भी टिस गहन है
मिलन और विरह जब बिखर जाएं
तब वह होते है या संसार होता है
यह दोनों किनारे जहाँ संग चले
प्रीत की रसधारा बहा लें चलता है
- तृषित
नित्य मिलन
कैसा नित्य मिलन
प्रीति और प्रेमास्पद का
हाँ वह तो नित्य है ,
नित्य मिलन है , वह
पर तुमने जो देखा क्या वह नित्य मिलन था ,
तुम जो देखना चाहते हो क्या वह नित्य मिलन है ,
तुम जो अभी देख रहे हो क्या वह नित्य मिलन है ,
नहीँ , नित्य मिलन वह नहीँ जिसे देखा जा सकें
नित्य मिलन वह है ,
जहाँ प्रीति हो प्रेमास्पद हो ,
तुम भी नहीँ ।
तुम वहाँ हुए कि वह नित्य मिलन
और किसी सृष्टि में होने लगेगा ।
ऐसा न होगा कि वह बिखर जायेगा
नहीँ वह गौण हो जाएगा ।
किन्हीं और गहरी रस की धाराओं में वह है , सदा है , कथन भर को नहीँ
सदा है
जब भी है , जब तुमने कहा
प्रीति प्रियतम् से रूठ गई
जो तुम देख सकते हो वह नित्य मिलन नहीँ
जो नित्य मिलन है वह तुम नहीँ
कभी नहीँ
तुम हो , वह विरह है
प्रीति और प्रेमास्पद का
क्योंकि तुम नित्य मिलन नहीँ देख रहे ।
वह नित्य मिलन में है
बस तुम मत देखना
हाँ तुम उसे पी सकते हो
वह रस है
तुम उसमें उतर भी सकते हो
वह अनुभूति-अमृतसर है
--सत्यजीत तृषित
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