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श्रील प्रबोधानन्द सरस्वतीपाद जी के राधादास्य प्राप्ति के कुछ सुझाव भाग 1

श्रील प्रबोधानन्द सरस्वती पाद के राधादास्य प्राप्ति के सुझाव - भाग 1

1 - हे गोवन्द ! श्री राधा के श्री चरणों का सौंदर्य मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय है , अपनी उन्हीं परम् प्रियतमा श्री राधा के चरणों में मुझे अद्भुत नवरसात्मक कैंकर्य दान करो । मैं पुनः - पुनः तुम्हारे निकट तुम दोनों के ही दास्य के लिये प्रतिक्षण प्रार्थना करती हूँ । ऐसी दीनता भरी प्रार्थना सुनकर गोविन्द ने ध्यान में आकर नवकिशोर, सुंदर नीलकमल कान्ति, मस्तक पर मयूर पुच्छ चूड़ा, गलित कंचन (पिघला हुआ शुद्ध सोना) पीतवसन धारण करते हुए दर्शन दिया । क्योंकि कृष्णनाम लेने से राधाजू के चरणों की सेवा मिलती है और राधा का नाम लेने से श्रीकृष्ण के चरणों की सेवा मिलती है । यही शैली युगल की प्रसन्नता प्राप्त करने का परम् उपाय है इसलिए गोविन्द के भजन के फलस्वरूप श्रीमती मुझसे प्रसन्न होकर दूर दृष्टिगणों को (सिर्फ मधुर रस के श्रेष्ठतम उपासकों) को प्राप्य अपना दास्य मुझको प्रदान करेगी ।श्री राधामाधव की एक-दूसरे के प्रति प्रीति परस्पर के परम् सन्तोष का / सुख का हेतु है । श्री नरोत्तम ठाकुर के मत से - "कृष्णनाम गाने भाई, राधिका चरण पाइ , राधानाम गाने कृष्ण ।" यहीं शैली युगल की प्रसन्नता प्राप्त करने का परम उपाय है । श्रीपाद प्रबोधानन्द सरस्वती जु कहते है - गोवन्द भजन के फलस्वरूप श्रीमती मुझ पर प्रसन्न होकर अपना कैंकर्य्य / दास्य मुझे प्रदान करेगी ही।
यहाँ युगल के भजन की परिणाम में क्या होगा यह निवृत्ति भी हो गई है ।क्योकि अब साधारण जन मानस में हरे कृष्ण महामन्त्र सीधा कृष्णप्राप्ति मन्त्र ही मान लिया जाने लगा है , वस्तुतः वह मधुर रस के साधकों हेतु तो भगवत् प्रेम हेतु से राधा दास्य मूल भाव से है - सत्यजीत तृषित ।

2 - मैं बाह्य साधना बताती हूँ - मेरा अभीष्ट है राधा पद दास्य प्राप्ति । इस उद्देश्य को हृदय में धारण कर मैं मयूर मुकुट धारी श्रीकृष्ण का सर्वदा ध्यान करती हू, उनका प्रतिदिन नाम संकीर्तन करती हूँ , उनके चरणाम्बुजों की नित्य सेवा करती हूँ , उनके मंत्रराज का नित्य जाप करती हूँ , इनके अनुग्रह से (ध्यान , सेवा आदि से) विपुल तृष्णामय अनुराग के भजन से मैं श्रीराधादास्य प्राप्तकर धन्य हो जाऊँगी ।

3 - मैं वृन्दावन में वास करती हूँ । मैं अति अधम , गर्हितकर्मा तुच्छ कलियुगी जीव हूँ । धाम ने कृपा करके आमरण वास दिया है और धाम की ही कृपा से ही राधा नाम मेरी जिह्वा पर सर्वदा स्फुरित हो रहा है । यह निश्चय ही श्री वृन्दावन धाम की महिमा है ।

4 - हे यमुने ! तुम युगल सरकार की परिकर हो । तुम्हारे नीर में इनकी जल क्रीड़ा होती है । तुम्हारे तीर पर मेरी निधि/स्वामिनी श्री राधा अपने प्रियतम् श्रीकृष्ण के साथ क्रीड़ा करती हैं । तुम्हारे तीर पर खड़े हुए तरु तथा लताएं भी लीला परिकर हैं । इन पर निवास करने वाले पक्षी भी लीला परिकर हैं । हे श्री राधा केलि विशेषज्ञ शुक, सारिका वृंद! हे मयूरगण ! मृग युथ! हे वानर वृंद ! तुम सब कृपा करो , जिससे मुझे राधादास्य मिले । --- क्रमश: --सत्यजीत तृषित ।

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