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अभिन्नता कैसे हो , कैसे प्रेम में एक रूप हो

अभिन्नता --
भीतर चाह है । चाह तो चाह है , भीतर अगर चाह है , तुम मिलो । तब भी चाह है , और चाह जब तक है उस चाह को भोगने वाला होगा । जिसे मिलने की ख्वाहिश है , वह उस पल होगा , ईश्वर को सच्चा प्रेम है अतः वह सीधा घुलते है भीतर । हम खुद हटते नहीँ और उन्हें देखना भी चाहते है । प्रेमी दो कभी नहीँ चाहता , प्रेमी चाहता है एक , बस एक और वह वहीँ हो , "मैं" नहीँ । ईश्वर तो प्रेमी है , अतः वह कहते है , मैं नहीँ तुम । और देखने पर दो हो , दुरी हो , तब वह देखना नहीँ , सीधे भीतर उतर जाते है ।
भीतर अपनी नियमावली है , यह नहीँ है "जैसा जब आप चाहैं"।  समय , अवस्था , स्थान , स्थिति , माध्यम , आदि आदि स्वयं ही तय कर हम कहे , आ जाओ प्रियतम । तब चाह हुई है , तब भी वह आयेंगे, पर तब सब आपकी चाह होगी , चाह हुई तो चाह को भोगने वाले भी भीतर होंगे । अतः हम भी वह भी हो यह प्रेम नहीँ । यहाँ दो है । प्रेम है केवल वहीँ । केवल वहीँ ।
जैसे चाहे वहीँ , as you wish , यहाँ बता दूँ , जीव कितना चाह लेगा , आजाओ , छूलो , देख लो ,बस । वह तो एक होना चाहते है , समाना । अतः उसमें कोई बाधा है तो वह है " मैं " । मैं चाहे उसके नियम सूत्र से मिलन हो तब मिलन हुआ तो भी कृपा नहीँ , केवल अपनी चाह पूर्ति दिखेगी । अगर यह "मैं" खो जाने को राजी हो , "वह" हो , हट सकें । तब "तुम" नहीँ रहते । वहीँ ही । चाह नहीँ होती , अचाह होती है और भीतर जिनती अचाह गहरी हुई , बाहर उतनी ही कृपा दिखेगी । भीतर पुष्प के स्पर्श की चाह नहीँ , फिर मिला तो कृपा । और भीतर चाह हुई , तब ना मिला तो कामना उठी और पूरी न हुई तो पीड़ा ।
एक बार मैं नहीँ तुम , यह अनुभव प्राप्त हो जाये।  एक बार जल पीकर भी कहा जा सके , मैं नहीँ प्रियतम , तुम पीओ। हर बार यूँ होता जावें , अचाह से । तब वहीँ है । चूँकि भीतर   चाह नहीँ , तो जो अचाह से , अर्थात् कृपा हुई । भीतर उस मिली कृपा को जीने के लिए भी वहीँ हो , आप ना हो । अचाह से  मिले पुष्प का स्पर्श भी उन्ही को हुआ हो ,क्योंकि प्रेमी में हर जगह एक शब्द है - मैं नहीँ प्रियतम् तुम । तब वह स्पर्श का भोग भी वह ही करेगें । यहाँ आप होकर भी नहीँ हो । अगर आप हुए तो वह खो जाएंगे  , पर दो नहीँ होंगे । यह ही उनका प्रेम है ,उनके ही प्रेम का नाम भक्ति है । अपनी बुद्धि से जीव समीपता चाहता है ।अभिन्नत नहीँ , और प्रेम तो यही है हम भिन्न नहीँ । भिन्न नहीँ एक हो तो अवसर प्रियतम को देना होगा , हर जगह , उनके संग हो खुद को खुद क्यों जिया जाये , बेख़ुदी में ही जो खुद वहाँ है वहीँ तो प्रियतम है , और वह तो रस ही है । एक जल का  गिलास उठाकर हम पिये , एक वह पिए ।
गीतों में कहना सरल है , तुम ही हो ,अब तुम ही हो । वह हो इसमें जो सबसे बड़ी बाधा है वह है "मैं" । "मैं" कब तक है , जब तक कामना (चाह) । जब कामना नहीँ , तो मेरी जरूरत नहीँ , अब मुझे खुद को जीने की आरज़ू नहीँ , तब ही तो कह सकोगे , तुम ही हो । निष्कामता के परिणाम में मिला सब कृपा है , और इस अभिन्नता के अहसास में ख़ुद यहाँ जीने वाले प्रियतम् , और कर्म के स्थान पर उन्ही की लीला।
प्रियतम का सुख अर्थात् उनकी चाह , वह तो लीला हुई । कर्म नहीँ । और जब भी आप स्वयं में लौटोगे तब एक शब्द होगा , कृपा ।
देखिये वह प्रेमी है , अतः अभिव्यक्त नहीँ होंगे , जी भी लिये आपको तब आपको अनुभूति तो उनके जीने की होगी , पर अभिव्यक्ति आप करेगें , वह नहीँ , वह आप के लिए प्रेममय समर्पण और प्रतिक्रिया उन्हें ही सौपने से प्रगट है , प्रेम से । पर जब तक सन्मुख कोई भी इस स्थिति तक नहीँ तो उन्हें आपमें हो कर जीने की क्रिया के लिए आप कहेगे , कृपा हुई । अर्थात् मेरी मांग नहीँ थी पर मिला , मुझे भूख ना थी पर मैने भोजन किया अर्थात् वह स्वयं ही किये तो मेरे लिए यह उनका अभिन्नमय प्रेम है , जिसे प्रति क्षण कृपा ही कहा जा सकेगा , क्योंकि जी तो वह रहे है , अभिव्यक्ति मेरी है । फिर कभी वह अभिव्यक्त होंगे और मैं उन्हें जिऊँगा , उनके लोक ।
प्रेम में अनुभूति आपकी तो अभिव्यक्ति प्रियतम् की है क्योकि है एक ही ।  अभिन्नरूप जो हो गया है । यह उनके धाम में संग से होगा ।
और अनुभूति प्रियतम् की , अभिव्यक्ति आपकी तो यह अभिन्न लीला इस जगत में हुई आप संग जिसे हम कहेगे , -- कृपा ।
सत्यजीत "तृषित" ।।

समस्त बाधा प्रेम में हट जाती है ।
उनकी कृपा से उन्हें भी मिलन लालसा हुई अतः मनुष्यता मिली ।

दूसरी बात , समस्त जो आप हेतु हो रहा है , सभी आपके संग , सब जीवन के सहयोगी , सारी क़ायनात केवल मिलन हेतु है ।
प्रेम की जितनी बाधा हुई वह खुद हट जायेगी। ना हटे तो वहाँ फिर वह आवश्यक है, अगर देह है यानी उन्हें आवश्यकता है इसकी ।
अगर कोई घर में रोकता है तो यह भी उन्हीं की सृष्टि से हुआ न । तो आवश्यक है , सत्य का अनुभव अभिन्नता में घटेगा ।

सोचिये , भक्ति क्यों है ?
अगर हम उन्हीं के है , भगवत् प्राप्ति लक्ष्य है तो क्या वह मर कर ही होगी क्या ? तब फिर जीवन की क्या आवश्यकता ।
सत्य तो यह है यह जीवन प्रेम की अभिन्नता को जीने हेतु मिला है । अकेले हम जीयेे तो सारा सिस्टम हमारे लिए मशीन बन जाएगा । हसरत मिटाने की मशीन ।
अगर वह अकेले जीते तब तो आवश्यकता ही ना थी , उनके विचार में पुष्प को जीना आया तो पुष्प की सृष्टि हुई । उन्हें बरसात के दिनों में भी बरसात की जरूरत ना हो तो नहीँ होगी ।
हमारे जीवन की जरूरत ना होती तो आत्मा क्यों देह में उतरती ।
हम है , संसार है , किस लिए उनके लिए ।
अतः अभिन्नता को समझना है , ना अकेले हम , ना अकेले वह ।

भक्ति का अर्थ है अभिन्नता , अर्थात् जितना हम खुद को नहीँ , उन्हें जी सकें । कहने को मर मिटने को आज सब तैयार है , पर जो सब है वह सौंपने को नहीँ । प्रेम हो गया आपको , और उन्हें तो सदा से ही है , हालांकि आजकल भजन के रूप में उन्हें प्रेम सिखाते है कि हम तो दीवाने है तुम नहीँ हो , सीखो हम से । पर उन्हें सदा है , हमें भी हो गया तब भी देह है , जीवन है तो क्यों ? प्रियतम हेतु । उनके लिए । यहाँ कोई ना समझे तो सन्त उन्हें ईश्वर के हेतु सेवा में लगा देते है । ताकि ईश्वर की चाह को ही जीव जियें , स्वचाह रहित होकर । सत्यजीत "तृषित"

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