मञ्जरी भाव:
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मधुर भाव की उपासना का उल्लेख पद्म पुराण पाताल खण्ड में मिलता है. श्री निम्बकाचार्य, जयदेव चण्डीदास और विद्यापति आदि ने भी इसका उल्लेख किया है. पर मञ्जरी भाव की उपासना के वैशिष्ठय का श्रीरूप गोस्वामी ने ही प्रथम बार उज्ज्वल नीलमणि में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है.
राधा की सखियाँ दो प्रकार की हैं-
"सम स्नेहा" और "असम स्नेहा".
जिनका राधा और कृष्ण के प्रति समान स्नेह है,
वे सम स्नेहा है, जैसे ललिता-विशाखा.
असम स्नेहा दो प्रकार की हैं-
1)कृष्ण स्नेहाधिका, जिनका राधा की अपेक्षा कृष्ण के प्रति स्नेह अधिक है, जैसे धनिष्ठादि और
2)राधा स्नेहाधिका, जिनका कृष्ण की अपेक्षा राधा के प्रति स्नेह अधिक है. राधा स्नेहाधिका 'मञ्जरी' कहलाती हैं.
यह रूप मञ्जरी आदि. मञ्जरियों का राधा स्नेहाधिक्यमय स्थायी भाव 'भावोल्लासारति' कहलाता है. कृष्ण के प्रति उनकी रति उसका संचारी भाव है. मञ्जरियों की विशेषता है उनकी विलक्षण भावशुद्धि.
सखियाँ राधा के अतिशय आग्रह से कभी-कभी श्रीकृष्ण का अंग-संग स्वीकार भी कर लेती हैं. पर मञ्जरियाँ राधाकृष्ण-सेवानन्दरस-माधुर्य आस्वादन में इतना तल्लीन रहती हैं कि वे राधाकृष्ण के अनुरोध पर भी कभी स्वप्न में भी कृष्ण-अंग-संग की बाँछा नहीं रखतीं.
इस विलक्षण भाव शुद्धि के कारण मञ्जरीगण को राधा-कृष्ण की जिस गोपनीय सेवा का अधिकार और सौभाग्य प्राप्त है, वह ललितादि सखियों को नहीं है. वे उनकी केलिभूमि में असंकुचित भाव से गमना-गमनकर उनकी गोपनीय सेवा करके धन्य होती है.
ललितादि सखियों का वहाँ प्रवेश भी नहीं है. इसके अतिरिक्त कृष्ण के अंग-संग का तिरस्कार करने के कारण मञ्जरियाँ रस की दृष्टि से किसी प्रकार घाटे में नहीं रहती.
अपितु राधा के साथ अपने तादात्म्य के कारण वे राधा और कृष्ण के मिलनान्द का स्वत: उपभोग करती हैं, यहाँ तक कि वे रति-चिह्न, जो कृष्ण के अंग-संग के कारण राधा में होते हैं, मञ्जरियों के अंग में भी उभर आते हैं.
रूप गोस्वामी के अनुसार श्रीरूप मञ्जरी आदि प्रमुखा मंजरियों के आनुगत्य में अपने अन्तश्चिन्तित सिद्ध देह से, राधाकृष्ण की सेवा करना ही गौड़ीय-वैष्णव साधकों का मुख्य भजन है- बाहर साधक देह से श्रवण-कीर्तनादि करना और अन्तर में सिद्ध देह (मंजरी-स्वरूप) की भावना कर उसके द्वारा लीला परिकर मञ्जरी के आनुगत्य में राधा कृष्ण की अष्टकालीन सेवा करना-
सेवासाधकरूपे सिद्धरूपेण चात्रहि.
तद्भावलिप्सुना कार्य्या व्रजलोकानुसारत:॥
इस प्रकार भावना करते-करते साधक का नित्य-सिद्ध लीला-परिकर मंजरीगण के साथ 'साधारणीकरण' हो जाता है, जिसके फलस्वरूप वह राधारानी के विप्रलम्भ और सम्भोग-रस का आस्वादन करता है. मंजरी भाव की उपासना के उक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि यह राधा-कृष्ण की युगल-उपासना है, पर इसमें प्रधानता राधा की है.
मंजरियाँ राधा की दासी हैं. वे मुख्य रूप से उन्हीं की चरण-सेवा में अनुरक्त हैं. कृष्ण के साथ उनका सम्बन्ध है राधा की सेवा के निमित्त ही. स्वतन्त्र रूप से कृष्ण की सेवा तो दूर, वे कृष्ण के प्रति भ्रुक्षेप भी नहीं करतीं. वे अपने राधा-प्रेम के कारण और राधा की अपने प्रति कृपा के कारण गर्वमयी हैं.
उन्हें कृष्ण से क्या लेना? कृष्ण उनकी अपेक्षा रखते हैं, वे कृष्ण की अपेक्षा नहीं रखतीं. कृष्ण राधा के प्रेम के वशीभूत हैं, और राधा से उनके मिलन में उनकी यह किंकरियाँ सहायक हैं. इसलिये उलटा वे ही इनके आगे हाथ जोड़े रहते हैं, इनकी चाटुकारी करते रहते हैं.
रूप गोस्वामी की 'चाटु पुष्पाञ्जलि' के इस श्लोक से यह कितना स्पष्ट है-
"करुणां महुरर्थयेपरं तव वृन्दावन चक्रवर्त्तिनी.
अपिकेशिरिपोर्यया भवेत्स चाटु प्रार्थनभाजनं॥
हे वृन्दावन चक्रवर्तिनि! 'मैं बार-बार तुम्हारी ऐसी कृपा की प्रार्थना करता हूँ, जिससे मैं तुम्हारी प्रिय सखी बनूं. तुम जब मानिनी हो तो कृष्ण तुम से मिलने के लिए मेरी चाटुकारी करें और मैं उनका हाथ पकड़कर उन्हें तुम्हारे पास ले आऊँ.'
किंकरी राधा की दासी है और कृष्ण राधा के प्राण हैं इसलिए वह कृष्ण से सम्बन्ध रखती है और राधा के साथ कृष्ण की सेवा करती है. पर यदि राधा की कृपा उसे न मिले तो अकेले कृष्ण से उसे क्या काम? वह उनकी उपेक्षा करती है.
रघुनाथ दास गोस्वामी ने 'विलाप कुसुमाञ्जलि' में यह बात खोलकर कही है-
त्वं चेत् कृपां मयि विधास्यसि नैव किं मे.
प्राणैर्व्रजेन च वरोरू वकारिणापि॥
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