श्री किशोरी जु महिमा भाई जी 1
श्रीराधाजी के अनन्त रूप हैं, उनमें अनन्त गुण हैं, उनके स्वरूपभूत भाव-समुद्र में अनन्त विचित्र तरंगे उठती रहती हैं और उनको विभिन्न दृष्टियों से विभिन्न लोगों ने देखा है, अतएव उनके सम्बन्ध में इतना ही कहा जा सकता है कि जो उन्हें जिस भाव से जानना चाहते हैं, वे उसी भाव से जान सकते हैं।’
मुझे तो प्रेमी संत-महात्माओं के मतानुसार यही जान प़ड़ता है कि एकमात्र सच्चिदानन्दघन विग्रह भगवान् श्रीकृष्ण ही विभिन्न दिव्य रूपों में लीलायमान हैं। वह एक ही परमतत्त्व श्रीकृष्ण श्रीराधा और अनन्त गोपीजनों के रूप में दिव्यतम मधुरतम स्वरूपभूत लीला-रस का आस्वादन करता रहता है। इस आस्वादन में वस्तुतः आस्वादक तथा आस्वाद्य का कोई भेद नहीं है। परमतत्त्व श्रीकृष्ण निरुपम, निरुपाधि, सत्, चित्, आनन्दघन हैं; सत् ‘संधिनी’, चित् ‘चिति’ और आनन्द ‘ह्लादिनी’ शक्ति है। ये ‘ह्लादिनी’ शक्ति स्वयं ‘श्रीराधा’ हैं, संधिनी ‘वृन्दावन’ बनी हैं और चिति’ समस्त लीलाओं की व्यवस्थापिका तथा आयोजिका ‘योगमाया’ हैं। श्रीराधा ही लीलाविहार के लिये अनन्त कायव्यूह रूपा गोपांगनाओं के रूप में प्रकट हैं।
भगवान् श्रीकृष्ण एकमात्र ‘रस’ हें और उन दिव्य मधुरातिमधुर रस का ही यह सारा विस्तार है। भगवान् और भगवान् की शक्ति— यही वस्तुतः रस-तत्त्व हैं; अन्य समस्त रस तो विरस (विपरीत रस), कुरस (कुत्सिल रस) और अरस (रसहीन) रूप से पतनकारी है। अतएव सच्चिदानन्द-विग्रह परम रस रसराज श्रीकृष्ण में और सच्चिदानन्दविग्रहा आनन्दांशघनीभूता, आनन्द-चिन्मय-रस-प्रतिभाविता रसमयी श्रीराधा में तत्त्वतः कुछ भी अन्तर नहीं है। नित्य एक ही नित्य दो बने हुए लीला-रस का वितरण तथा आस्वादन करते रहते हैं। परंतु भगवान् की केवल मधुरतम लीलाओं का ही नहीं, उनकी लीलामात्र का ही तत्त्वतः एकमात्र आधार उनका परम शक्ति— राधारूप ही है।
शक्ति से ही शक्तिमान् की सत्ता है और शक्ति रहती है शक्तिमान् में ही। अतः अनादि, सर्वादि, सर्वकारणकारण, अद्वय ज्ञान-तत्त्व रूप सच्चिदानन्दघन व्रजरसनिधि श्यामसुन्दर श्रीकृष्णचन्द्र ओर उनकी ह्लादिनी शक्ति श्रीराधाजी का परस्पर अभिन्न तथा अविनाभाव नित्य अविच्छेद्य तथा ऐक्य-सम्बन्ध है। श्रीराधा पूर्ण शक्ति हैं— श्रीकृष्ण पूर्ण शक्तिमान् हैं; श्रीराधा दाहिका शक्ति हैं— श्रीकृष्ण साक्षात् अग्नि हैं; श्रीराधा प्रकाश हैं - श्रीकृष्ण भुवन-भास्कर हैं; श्रीराधा ज्योत्सना हैं— श्रीकृष्ण पूर्ण चन्द्र हैं। इस प्रकार दोनों नित्य एक-स्वरूप हैं। एक होते हुए ही श्रीराधा समस्त कृष्णकान्ताओं की शिरोमणि ह्लादिनी शक्ति हैं। वे स्वमन-मोहन-मनोमोहिनी हैं, भुवनमोहन-मनोमोहिनी हैं, मदन-मोहन-मनोमोहिनी हैं। वे पूर्णचन्द्र श्रीकृष्णचन्द्र के पूर्णतम विकास की आधारमूर्ति हैं और वे ही अपने विचित्र विभिन्न भावतरंग-रूप अनन्त सुख-समुद्र में श्रीकृष्ण को नित्य निमग्न रखनेवाली महाशक्ति। ऐसी इन राधा की महिमा राधाभावद्युति-सुवलित-तनु श्रीकृष्णचन्द्र के अतिरिक्त और कौन कह सकता है? पर वे भी नहीं कह सकते; क्योंकि राधागुण-स्मृतिमात्र से ही वे इतने विह्वल तथा मुग्ध, गद्गद-कण्ठ हो जाते हैं कि उनके द्वारा शब्दोच्चारण ही सम्भव नहीं होता।
मैं तो रसशास्त्र से सर्वथा अनिभिज्ञ, नितान्त अज्ञ हूँ। इसलिये रस-शास्त्र की दृष्टि से कुछ भी कहना मेरे लिये सर्वथा अनधिकार चेष्टा है। अतः इस विषय पर कुछ भी न कहकर जिनका दिव्यातिदिव्य पद-रज-कण ही मेरा परम आश्रय है, उन श्रीराधाजी के सम्बन्ध में कुछ शब्द उनकी कृपा से लिख रहा हूँ। जिन श्रीराधाजी की अयाचित कृपा से मुझे उनका जो कुछ परिचय मिला है और जिन्होंने अपने महान् अनुग्रहदान से मुझ पतित पामर को अपनाकर कृतार्थ किया है; वे अपने अचिन्त्य महिमा में स्थित श्रीराधाजी न तो विलासमयी रमणी हैं, न उनका उत्तरोत्तर क्रमविकास हुआ है, न वे कविहृदय-प्रसूत कल्पना हैं और न उनमें किसी प्रकार का गुण-रूप-सौन्दर्याभिमान ही है। वे नित्य सत्य एकमात्र अपने प्रियतम श्रीश्यामसुन्दर की सुख विधाता हैं। वे इतनी त्यागमयी हैं, इतनी मधुर-स्वभावा हैं कि अचित्यानन्त गुण-गण की अनन्त आकार होकर भी अपने को प्रियतम श्रीकृष्ण की अपेक्षा से सदा सर्वसद्गुणहीन अनुभव करती हैं, वे परिपूर्ण प्रेमप्रतिमा होने पर भी अपने में प्रेम का सर्वथा अभाव देखती हैं; वे समस्त सौन्दर्य की एकमात्र निधि होने पर भी अपने को सौन्दर्य रहित मानती हैं और पवित्रतम सहज सरलता उनके स्वभाव की सहज वस्तु होने पर भी वे अपने में कुटिलता तथा दम्भ के दर्शन करती और अपने को धिक्कार देती हैं। वे अपनी एक अन्तरंग सखी से कहती हैं—
सखी री! हौं अवगुन की खान।
तन गोरी, मन कारी भारी, पातक पूरन प्रान।।
नहीं त्याग रंचक मो मन में भर्यौ अमित अभिमान।
नहीं प्रेम कौ लेस, रहत नित निज सुख कौ ही ध्यान।।
जग के दुःख-अभाव सतावैं, हो मन पीड़ा-भान।
तब तेहि दुख दृग स्त्रवै अश्रु जल, नहिं कछु प्रेम-निदान।।
तिन दुख-अँसुवन कौं दिखरावौं हौं सुचि प्रेम महान।
करौ कपट, हिय-भाव दुरावौं, रचैं स्वाँग स-ज्ञान।।
भोरे मम प्रियतम, बिमुग्ध ह्वै करैं बिमल मन गान।
अतिसय प्रेम सराहैं, मोकूँ परम प्रेमिका मान।।
तुम हूँ सब मिलि करौ प्रसंसा, तब हौं भरौं गुमान।
करौं अनेक छद्म तेहि छिन हौं, रचौं प्रपंच-बितान।।
स्याम सरल-चित ठगौं दिवसनिसि, हौं करि विविध विधान।
धृग् जीवन मेरौ यह कलुषित धृग् यह मिथ्या मान।।
इस प्रकार श्रीराधाजी अपने को सदा-सर्वदा सर्वथा हीन-मलिन मानती हैं, अपने में त्रुटि देखती हैं - परम सुन्दर गुणसौन्दर्य निधि श्यामसुन्दर की प्रेयसी होने की अयोग्यता का अनुभव करती हैं एवं पद-पदपर तथा पल-पल में प्रियतम के प्रेम की प्रशंसा तथा उनके भोलेपन पर दुःख प्रकट करती हैं। श्यामसुन्दर के मथुरा पधार जाने पर वे एक बार कहती हैं—
सद्गुणहीन रूप-सुषमा से रहित, दोष की मैं थी खान।
मोहविवश मोहन को होता, मुझमें सुन्दरता का भान।।
न्यौछावर रहते मुझपर, सर्वस्व स-मुद कर मुझको दान।
कहते थकते नहीं कभी - ‘प्राणेश्वरि!’ ‘हृदयेश्वरि!’ मतिमान।।
‘प्रियतम! छोड़ो इस भ्रम को तुम’ बार-बार मैं समझाती।
नहीं मानते, उर भरते, मैं कण्ठहार उनको पाती।।
गुण-सुन्दरतारहित, प्रेमधन-दीन कला-चतुराई हीन।
मुर्खा, मुखरा, मान-मद-भरी मिथ्या, में मतिमंद मलीन।।
रहता अति संताप मुझे प्रियतम का देख बढ़ा व्यामोह।
देव मनाया करती मैं, प्रभु! हर लें सत्वर उनका मोह।।
--- भाई जी श्री हनुमानप्रसाद पौद्दार जी ।।
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