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किशोरी जु महिमा भाई जी 2

श्री किशोरी महिमा  भाई जी 2

श्रीराधा के गुण-सौन्दर्य से नित्य मुग्ध प्रियतम श्यामसुन्दर यदि कभी प्रियतमा श्रीराधा के प्रेम की तनिक भी प्रशंसा करने लगते, उनके प्रति अपनी प्रेम-कृतज्ञता का एक शब्द भी उच्चारण कर बैठते अथवा उनके दिव्य प्रेम का पात्र बनने में अपने सौभाग्य-सुख का तनिक-सा संकेत भी कर जाते तो श्रीराधाजी अत्यन्त संकोच में पड़कर लज्जा के मारे गड़-सी जातीं। एक बार उन्होंने श्यामसुन्दर से रोते-रोते कहा—
तुमसे सदा लिया ही मैंने, लेती-लेती थकी नहीं।
अमित प्रेम-सौभाग्य मिला, पर मैं कुछ भी दे सकी नहीं।।
मेरी त्रुटि, मेरे दोषों को तुमने देखा नहीं कभी।
दिया सदा, देते न थके तुम, दे डाला निज प्यार सभी।।
तब भी कहते— ‘दे न सका मैं तुमको कुछ भी हे प्यारी।
तुम-सी शील-गुणवती तुम ही, मैं तुमपर हूँ बलिहारी’।।
क्या मैं कहूँ प्राण-प्रियतमसे, देख लजाती अपनी ओर।
मेरी हर करनी में ही तुम प्रेम देखते नन्दकिशोर।।
श्रीराधाजी का जीवन प्रियतम-सुखमय है। वे केश सँवारती हैं, वेणी में फूल गूँथती हैं, मालती की माला पहनती हैं, वेश-भूषा, साज-श्रंगार करती हैं, पर अपने को सुखी करने के लिये नहीं; वे सुस्वादु पदार्थों का भोजन-पान करती हैं, परंतु जीभ के स्वाद या अपने शरीर की पुष्टि के लिये नहीं; वे दिव्य गन्ध का सेवन करती हैं, पर स्वंय उससे आनन्द लाभ करने के लिये नहीं; वे सुन्दर पदार्थों का निरीक्षण करती हैं, पर अपने नेत्रों को तृप्त करने के लिये नहीं; वे मधुर-मधुर संगीत-ध्वनि सुनती हैं, पर अपने कानों को सुख पहुँचाने के लिये नहीं; वे सुख-स्पर्श प्राप्त करती हैं, पर अपने त्वगिन्द्रिय की प्रसन्नता के लिये नहीं। वे चलती-फिरती हैं, सोती-जागती हैं, सब व्यवहार-बर्ताव करती हैं, पर अपने लिये नहीं; वे जीवनधारण भी अपने लिये नहीं करतीं। वे यह सब कुछ करती हैं— केवल और केवल अपने परम प्रियतम श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाने के लिये !
वस्तुतः वे सदा-सर्वदा यही अनुभव करती हैं कि उनके समस्त मन-इन्द्रिय, उनके समस्त अंग-अवयव, उनके चित्त-बु़द्धि, उनका चेतन-आत्मा - सभी को श्रीकृष्ण अपने नित्य-निरन्तर सुख-संस्पर्श-दान में ही संलग्न बनाये रखते हैं, अन्य किसी का भी वे कभी संकल्प भी करें, इसके लिये तनिक-सा अवकाश नहीं देते या क्षणभर के लिये किसी अंग की वैसी स्व-संस्पर्श रहित स्थिति ही नहीं होने देते। श्रीराधाजी अपनी परिस्थिति बतलाती हैं—
स्त्रवननि भरि निज गिरा मनोहर मधु मुरली की तान।
सुनन न दै कछु और सबद, नित बहरे कीन्हें कान।।
लिपटो रहै सदा तन सौं मम रह्यौ न कछु बिबधान।
अन्य परस की सुधि न रही कछु, भयौ चित्त इकतान।।
अँखियन की पुतरिन में मेरे निसिदिन रह्यौ समाय।
देखन दै न और कछु कबहूँ एकै रूप रमाय।।
रसना बनी नित्य नव रसिका चाखत चारु प्रसाद।
मिटे सकल परलोक-लोक के खाटे मीठे स्वाद।।
अंग सुगंध नासिका राची मिटी सकल मधु बास।
भई प्रमत्त, गई अग-जग की सकल सुबास-कुबास।।
मन में भरि दीन्हीं मोहन निज मुनि-मोहनि मुसकान।
चित्त कर्यौ चिंतन रत चिन्मय चारु चरन छबिमान।।
दई डुबाय बुद्धि रस-सागर उछरन की नहिं बात।
आय मिल्यौ चेतन मैं मोहन भयौ एक संघात।।
अतएव श्रीराधा के श्रृंगार-रस में तथा जागतिक गार में नामों की समता के अतिरिक्त किसी भी अंश में, कहीं भी, कुछ भी तुलना ही नहीं है। तत्त्वतः और स्वरूपतः दोनों परस्पर सर्वथा विपरीत, भिन्न तथा विषम वस्तु हैं। लौकिक श्रंगार होता है— काममूलक, काम की प्रेरणा से निर्मित! इन्द्रिय-तृप्ति की स्थूल या सूक्ष्म कामना-वासना ही उसमें प्रधान हेतु होती है।
साधारण नायक-नायिका के श्रृंगार-रस की तो बात ही नहीं करनी चाहिये, उच्च-से-उच्चतर पूर्णता को पहुँचा हुआ दाम्पत्य-प्रेम का श्रंगार भी अहंकारमूलक सुतरां कामप्रेरित होता है; वह स्वार्थपरक होता है, उसमें निज सुख की कामना रहती है। इसी से इसमें और उसमें उतना ही अन्तर है, जितना प्रकाश और अन्धकार में होता है।
यह विशुद्ध प्रेम है और वह काम है। मनुष्य के आँख न होने पर तो वह केवल दृष्टि शक्ति से ही हीन— अन्धा होता है, परंतु काम तो सारे विवेक को ही नष्ट कर देता है। इसी से कहा गया है— ‘काम अन्धतम, प्रेम निर्मल भास्कर’ काम अन्धतम है, प्रेम निर्मल सूर्य है। इस काम तथा प्रेम के भेद को भगवान् श्रीराधा-माधव की कृपा से उनके बिरले प्रेमी भक्त वैसे ही जानते हैं, जैसे अनुभवी रत्न-व्यापारी— जौहरी काँच तथा असली हीरे को पहचानते और उनका मूल्य जानते हैं। काम या काममूलक श्रंगार इतनी भयानक वस्तु हे कि वह केवल कल्याण-साधन से ही नहीं गिराता, सर्वनाश कर डालता है।
काम की दृष्टि रहती है अधः इन्द्रियों की तृप्ति की ओर, एवं प्रेम का लक्ष्य रहता है ऊर्ध्वतम सर्वानन्द स्वरूप भगवान् के आनन्दविधान की ओर। काम से अधःपात होता है, प्रेम से दिव्यातिदिव्य भगवद्रस का दुर्लभ आस्वादन प्राप्त होता है। काम के प्रभाव से विद्वान् की विद्वता, बुद्धिमान् की बुद्धि, त्यागी का त्याग, संयमी का संयम, तपस्वी की तपस्या, साधु की साधुता, विरक्त का वैराग्य, धर्मात्मा का धर्म और ज्ञानी का ज्ञान-बात-की-बात में नष्ट हो जाता है। इसी से बड़े-बड़े विद्वान् भी ‘राधाप्रेम’ के नाम पर, उज्ज्वल श्रंगाररस के नाम पर पापाचार में प्रवृत्त हो जाते हैं और अपनी विद्वत्ता का दुरुपयोग करके लोगों में पाप का प्रसार करने लगते हैं।
अतएव जहाँ भी लौकिक दृष्टि है, भौतिक अंग-प्रत्यंगों की स्मृति है, उनके सुख-साधन की कल्पना है, इन्द्रिय-भोगों में सुख की भावना है; वहाँ इस दिव्य श्रृंगाररस के अनुशीलन का तनिक भी अधिकार नहीं है। रति, प्रणय, स्नेह, मान, राग, अनुराग और भाव के उच्च स्तरों पर पहुँची हुई श्रीगोपांगनाओं में सर्वोच्च ‘महाभाव’ रूपा श्रीराधा की काम-जगत् से वैसे ही सम्बन्ध-लेश-कल्पना नहीं है, जैसे सूर्य के प्रचण्ड प्रकाश में अन्धकार की कल्पना नहीं है।
इस रहस्य तत्त्व को भलीभाँति समझकर इसी पवित्र भाव से जो इस राधा-माधाव के श्रंगार का अनुशीलन करते हैं, वे ही वास्तव में योग्य अधिकार का उपयोग करते हैं। नहीं तो यह निश्चित समझना चाहिये कि जो लोग काममूलक वृत्ति को रखते हुए इस श्रंगाररस के क्षेत्र में प्रवेश करेंगे, उनकी वही दुर्दशा होगी, जो मधुरता के लोभ से हलाहल विषपान करने वाले की या शीतलता प्राप्त करने की अभिलाषा से प्रचण्ड अग्निकुण्ड में उतरने वाले की होती है।
यह स्मरण रखना चाहिये कि योग्य अधिकारी ही इस श्रीराधारानी के दिव्य श्रृंगार-राज्य में प्रवेश कर सकते हैं। इस दिव्य प्रेम-जगत् में प्रवेश करते ही एक ऐसे अनिर्वचनीय परम दुर्लभ विलक्षण दिव्य चिदानन्दमय रस की उपलब्धि होती है कि उससे समस्त विषयव्यामोह तो सदा के लिये मिट ही जाता है, दुर्लभ-से-दुर्लभ दिव्य देवभोगों के आनन्द से ही नहीं, परम तथा चरम वान्छनीय ब्रह्मानन्द से भी अरुचि हो जाती है।
श्रीराधा-माधव ही उसके सर्वस्व होकर उसमें बस जाते हैं और उसको अपना स्वेच्छा-संचालित लीलायन्त्र बनाकर धन्य कर देते हैं।
ऊपर जो कुछ लिखा गया है वह मेरी धृष्टतामात्र ही है। वास्तव में मेरे-जैसे नगण्य जन्तु का श्रीराधा के सम्बन्ध में कुछ भी लिखने जाना अपनी अज्ञता का परिचय देने के साथ श्रीराधारानी का भी एक प्रकार से तिरस्कार करना ही है। पर इस तिरस्कार के लिये तो वे स्वयं ही दायी हैं; क्योंकि उन्हीं की अन्तःप्रेरणा से यह लिखा गया है।
-- भाई जी श्री हनुमानप्रसाद पौद्दार जी ।

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