अरी सखी
आज तो गजब ढाये दियो
गजब!!!!
मत पूछ कैसो गजब
उदासी की मटकी फोड़ी
हाए ।।
बहरूपिया बन आया अब जौहरी
कहत उन नग हीरों की कीमत जाणो हो
जा सजो उन भगवन तन
जिन तू पिया पिया कह हो कंठ लगी
आह।।
लगी बड़ी ज़ोर की
मैं जोगन पिया प्रेम में
न कुछ जानु
न किसी को पहचानु
ऐसो बाण चलाया जोग का
फेर अपना सर्वस्व भूली
बनी धूल कण पड़ी सेहरा में
किस विधि पत्थर कीमत जानु
अब किस विधि पिया को धजुं
किस विधि उनको फिर पाऊं
फेर लगन कंठ पिया के
कितने जन्म लगैं न जानूं
दिन रैन पड़ी तड़प रही
किस संग विरह वेदना बांटू
मौन धरूंगी तुम सा प्रिय कह
भीतर ही तप संन्यास लिया
तड़प तड़प कर फिर पिया को ही याद किया
ऐसा दर्द उठाया हृदय में
सब जग अब विसार दिया
न कित देखुं न कित बोलुं
पिया मिलन का अलख जगा लिया
दिन रैन की कोई सुधि न रही
देह भान भी त्याग दिया
अरी
कहत है काहै प्रेम कियो
काहै तूने रोग लगाएओ
इब बता का बोलूं
अखियों में आँसू और मुख ही न खोलुं
अरी कहत है
प्रेम वरेम किसी बेद पुराण में नाए होवै है
अरी पछताए रही
काहे आज ज्ञान के चक्र में पड़ गई
सखी
सच्ची बताऊं
अगर कोनो बेद पढ़ लियो ना
प्रेम को भूत सच में ही उतर जाई
वो भलो है मोकु प्रेम पहले हो गयो
इब ज्ञान का कोनो असर न होए
अरी ऊ छलिया तो खड़े खड़े मुस्काए है
अगर प्रेम ही ना होवै तो तड़प आंसु
विरह और फिर मिलन तो कबहु न होए
हाए री
ऊ ज्ञानी
ज्ञानी कौन
मत पूछ
मोहे तो बहरूपिया लागै है कोए
ऐसो लगै नित नए रूप में आवे है
मोहे प्रेम रोग सों बचावै खातर
इब तो सच्ची कहुं
कबहु न खोलुंगी घुंघट
कबहु नाए पड़ुंगी ऊ रस्ता जहाँ
वो बहरूपिया पग धरै है
बोल
इब सांवरिया से नज़र काईं मिलाऊं
आँखों में आँसू भरै हैं
निंदिया भी न आए है
सब धुंधलाए गयो
पुछूंगी कान पकड़ ऊ के
प्रेम को रोग तो फैलाएओ
पर तू ज्ञान गंगा काहे बहाएओ
काहै प्रेम पावन की खातर
भगवान राम से प्रेमी कृष्ण कन्हैया बन आएओ
तभी श्यामसुंदर सामने खड़े मुस्काए दियो
काहे तू सुनै है औरन की
काहे तू उदास भई
नटखट ने मेरी मटकी फोड़ी
उदासी मेरी ऐसी तोड़ी
मौन तप सब भुली मैं
दूध दही सों चूनर भिगोली
कहा पिया ने देह दी है
हरि नाम भजन कारन
काहे तु प्रेम करनो भूली
जो बनानो हतो तुझे धूल ही तो
काहे प्रेम करनो सिखाएओ
पड़ी रहती कहीं कुंजन मा
इह वास्ते का कंठ लगाएओ
अब सब समझ गई मैं पगली
अब कभी न पिया को तजुंगी
सदा सदा उसी को भजुंगी
नित नित पल छिन पिया प्रेम रस ही चखुंगी
पिया संग पिया सी ही सदा बन रहुंगी
हाए
हाए सखी
का कहुं उस ज्ञानी को
जो प्रेम को झुठलाएओ
जी तो करै है
चल री छोड़
कछु नां
"!!!अंग-अंग ते रोम-रोम में,
श्यामल छबि हरषाये
श्याम चरण मन भाये ,
उठत-बैठत जागत-सोवत,
हरि छबि सदा सुहाये ,
इत-उत- पल-पल छिन-छिन देखूँ,
चंद्र रूप मुस्काये,
बंद करूँ जो अंखियन
हिय नैनन दरषाये...!!!"
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