Skip to main content

क्या हमने सच में होली खेली है ? तृषित

क्या सही में कभी हमने होली खेली है ?
हम ईश्वर की विकसित कृति है , मनुष्य । परन्तु हम समस्त प्रकृति को समझ कर भी नहीँ समझते । भारतीय उत्साह में हुए उत्सवों में कहीँ न कहीँ एक गहन भाव है । "शरणागति" ! समर्पण !
होली खेलने के लिए यही समय क्यों  ? वर्ष की माला का सुमेरु ना उँघले इस वर्ष के विश्राम में भीतर के अहम् को भस्म कर भस्म हुई होली की राख से नव वर्ष में हम होते है , उस होली की भस्म से बनी गणगौर के संग । जो कल होली थी , फिर गणगौर होगई , कैसे ? यही तो अवसर यह संस्कृति देती है । आज आपाधापी में अगर विकार मय हो अहम् आदि से बन्ध हम होलिका हो गए हो तो इन्हें भस्म कर कल गणगौर हो सकेंगे । गणगौर का अर्थ है विशुद्ध प्रकाशमय चेतना । होली से 16 दिन की पूजा और उत्सव से यह भावना प्रगट होती है , और तनिक बोध नहीँ रहता कि कल यह होली की राख से बनाई थी और आज गणगौर हो गई । यह है समर्पण । हम होली जलाते है , रावण भी जलाते है , पर बाहर ही , भीतर कभी नहीँ । भीतर हम अपने अनुभव में प्रह्लाद है , राम है । स्व विकार की निवृत्ति के इतने अवसर अन्य किसी धर्म में नहीँ । परन्तु होली दहन के अगले ही दिन धुलंडी पर दीखता है , क्या भस्म हुआ । सभी और भीतर का असुर जी उठता है । यह रंगो का उत्सव भीतर का मानव या परम् तत्व नहीँ , वह वर्ष भर का दबा हुआ दैत्य मना लेता है , जितना बड़ा शहर उतने दैत्य प्रगट । सब की भाव व्यंजना ऐसी की पृथ्वी को उछाल दे । विचित्र आवेश के करतब । क्या यह ही रंगो का त्यौहार है ?
हम मनुष्य प्रकृति से प्रभावित है , प्रकृति बाहर जैसी हो भीतर भी वैसा ही उन्माद हो उठता है , और उसी उन्माद को बार बार प्रगट करते है , भारतीय त्यौहार ।
पतझड़ के बाद बसन्त आया , बहार आई , नव रंग खिले । प्रकृति विभिन्न रंग में नहा गई । यहीँ से रंगो का त्यौहार उन्मादित हुआ । प्रकृति अपने समस्त विभिन्न रंग , सारा रूप सौंदर्य अपने प्रियतम् (ईश्वर) को समर्पित कर देती है । इन अपने विभिन्न रंगों से होली खेल लेती है । कल जहाँ पतझड़ था तब भी प्रकृति समर्पित थी (मकरसक्रांति भाव से) आज बहार है , बसन्त है , रंग है तो अपने ही रंगो से यह प्रियतम् का श्रृंगार है ।
ध्यान रखने की बात है अपने रंगों से । वह रंग जो केवल तुम्हारे हो , बाजार में जो मिलता है वह कैसे उस उन्माद तक लें जाएगा । अपने रंग , अपना ही रूप , अपने भाव , अपनी अभिव्यक्ति , भावना , अपना रस इनसे होली खेलनी है प्रियतम् संग । हम प्रकृति के रंगो को अपना केवल धन देकर नहीँ कह सकते । किसी पुष्प की गुलाल ना भी बने तो भी वह तो हुआ ही समर्पण से है , सदा समर्पित है । भीतर के नव रंगों का समर्पण । कहते ही है हम , सब कुछ है तेरा , तेरा तुझको अर्पण , क्या लागे मेरा - यह भाव जिन्होंने जीया सच्ची होली उन्होंने खेली  , अपने सभी रंगो से रंग दिया प्रियतम् को ।
हाँ अपने सब रंग उतार कर चढ़ा दिए उन्हें , और हो गए खाली , जैसे पिचकारी हो जाती है । यह रंग विशुद्ध प्रेम के रंग है , विकार के नहीँ , पतझड़ बाद खिले नव रंग , बसन्त के प्रेम ऋतू से भीगे रंग सो यह रंग भयंकर नहीँ है बड़े कोमल है , हल्के है , महकते है , इसलिए गुलाल कहलाते है । गुलाल से होली खेलना अर्थात् भीतर के प्रेम रस से होली हो , यहाँ गहरे - गम्भीर रंग गुलाल में नहीँ , जैसे क्रोध आदि के काले रंग नहीँ । सरल रंग प्रेम मय ।
यह होली है , रंग दीजिये अपने प्रियतम् - प्रभु या जिस भी रूप में वह आप हेतु प्रगट है , केवल खरीदे हुए रंग नहीँ , भीतर के रंग । अपने रंग जो उनके प्रेम में खिले । समस्त उज्ज्वल रस के भाव प्रियतम् पर बरसा देना होली है । यह होली गहरी होगी , बाहर के रंग उतर जाएंगे , भीतर के रंग प्रियतम् को सर्व रूप सौंप दिए तो ना वह उतार सकेंगे , ना ही हम । प्रियतम् अगर मोहन है तो उनके रंग कभी उतरने भी नहीँ , वह सच्ची होली खेलते है बाहर की ही नहीँ , भीतरी रंगों संग । और फिर उनका रंग उतर सके तब तो होली खेली ही नहीँ  । सो इस बार वह आएं और सदा के लिए अपने रंग में रंग जाये और हमारे रंग लें जाएं । होली का आनन्द जब है जब दोनों और अलग रंग हो । एक ही रंग हुआ तो पता नहीँ उन्होंने अपना लगाया या हमारा ही । और भीतर के भाव रंग और जीवन के सभी रंग सदा पृथक् है । बाहर के रंग सब एक से है , अधिक से अधिक व्यक्ति अपना अहम् और वैभव दिखाने को अमेरिका से गुलाल मंगा सकता है , पर अपने रंग से नहीँ खेल पाता । सच्चे प्रेमी के अतिरिक्त कौन अपने सब रंग प्रियतम् पर बिन पूछे बरसा दे और उनके सब रंग में ही सराबोर हो जाये , और भी कहना था पर इतना ही हम से हो सकें तो अहा , कहा जा सकें देखो मैंने होली खेली , मुझपर से उनका रंग ना उतरा -- सत्यजीत "तृषित" .... नवरंगनागरी नवरंगनागर की जय जय ।।।

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ ...

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हर...

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ ...