रस सिंधु के रस आवर्त
जो डूबे बस डूबत जाहीं
दो रसभरे रसीले नयन नित नूतन रस तरंगों से छलकते ॥ कभी भोले शिशु की सी निश्छलता तो कभी रस केलि का आमंत्रण देती शरारत भरि चितवन कभी रस तृषित सिंधु से तो कभी माधुर्य की रस सिक्त फुहारें ॥ कभी कारुण्य लहरियाँ तो कभी औदार्य की वृष्टि ॥ कभी प्रश्न सी पूछती सकुचाती तरल दृष्टि तो कभी समस्त उत्तरों का सार पढाती बंकिम चितवन ॥ कितने रंगों की मधुर चंद्रिकायें छिटकती नैनो के आकाश माहीं ॥ पलकों की चिलमन से प्रेम की फुहारें तन मन प्राण को रस सिक्त करती ॥ हम तो नैनन माहीं अटक गये हैं , आगे भी तो निरखन चाहीं ॥
कर्ण पटु के ऊपरी छोर का स्पर्श करते दो रसीले मुक्ता और कर्णों से लटकते रसीले रत्न जडे़ कुंडल जो झूम झूम कपोलों के रस सागर में डुबकियाँ लगा रहें हैं और रस में डूबने के कारण और रसीले हो इठला रहे हैं नृत्य सा थिरक रहे हैं ॥ सुघड़ नासिका के नीचे सजे रस के गहन सरोवर में खिले दो सरसिज ॥माधुर्य के मकरंद से ओतप्रोत ये बिम्ब अधर कमल ॥ प्रेमियों की परम निधि स्वरूप कभी रस मूर्छा में ले जाने वाली तो कभी रस मूर्छा से जगाने वाली महारसौषधि को समेटे दो रसीले रस आवर्त ये आहा .....॥ तनिक सी झुकी ग्रीवा कि प्रिया के रस मंडल से मुख कमल का इनके दो रस बावरे नयन भ्रमर अनवरत रसपान कर सकें ॥ अधरों पर अर्थपूर्ण मुस्कान प्रेम के न जाने कितने रंग चित्त पर उकेरती ॥ मुस्कराहट का आलिंगन कर रसीली करावलियों से लिपट रस सरसिजों पर विश्राम करती वो जग प्रसिद्ध वेणु जो सकल रस के प्रेम के सार को अपने हृदय में सहेजे हुये प्रियतम की चिरसंगिनी बनी है ॥ गले में झूलती वैजयन्ती की रसमाल जो कुमुदिनी का संग पा रस की सहस्त्र सहस्र धाराओं का रस प्रवाह कर किशोरी के चित्त को व्याकुल करने का ही व्रत लिये प्रियतम वक्ष से आलिंगनबद्ध हुयी जा रही है ॥ और उसका साथ दे रहीं हैं रसमुक्ताओं की छोटी बडी कंठ लडियाँ , जो रसराज कंठ से लग यूँ सुशोभित हो रहीं हैं जैसै श्री प्रिया संग सखियाँ भी प्रियतम की रसमयी सेवा श्रमित हो विश्राम पा रहीं हों ॥
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