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र से रस , 45 , संगिनी जु

! मनोरंजन अनुरंजन !!

तत्सुख रूप कण कण लता पत्र जीव पक्षी सखी सहचरी धराधाम की सत्ता सब केवल प्रियालाल जु सुखदान हेतु ही हैं।स्वयं प्रियालाल जु भी परस्पर सुख हेतु ही सदैव तत्पर हैं।प्रियालाल जु को सुख पहुँचाने हेतु प्रत्येक रज कण उनका पदालिंगन पाकर पुष्प हो उठता है और प्रत्येक पुष्प भी स्वतः ही उनकी राहों को सजाते संवारते भावपूर्ण उनका अनुरंजन करते रहते हैं।बेल लता व डाल पात सब प्रियालाल जु के रंजन हेतु शीतल सुगंधित ब्यार का अनुसरण करते हैं।श्री वृंदावन धाम में पोषित प्रत्येक भ्रमर पक्षी भी सदा श्यामा श्यामसुंदर जु को सुख पहुँचाने हेतु कभी मधुर वाणी में उनका गुणगान करते हैं तो कभी एक डाल से दूसरी डाल पर उड़ते नाचते पुष्प फल इत्यादि उनके चरणों में अर्पित करते रहते हैं।सखी सहचरियाँ सेवारत हर क्षण प्रियालाल जु के मिलन हेतु प्रयासरत रहती हैं और साथ ही साथ कई हास्य संगीतमय और उन्मत्त खेल शतरंजों का निर्माण करती रहती हैं।मोद उन्मोद में डूबे श्यामा श्यामसुंदर जु सखियों संग हास परिहास करते कुंज निकुंजों में विहरन करते रहते हैं और सदैव परस्पर सुख वार्तालाप में तन्मय एक दूसरे का मनोरंजन करते हैं।यमुना जु का मधुर कलरव पवन व पुष्पों की महक पक्षियों का गान और सखियों का नृत्य वादन सदैव झन्कृत होता प्रियालाल जु का मनोरंजन करता रहता है और प्रियालाल जु भी रस भाव भंगिमाओं से सखियों व सभी निकुंज जड़ व चेतन को झन्कृत कर देने वाली रसाभिव्यक्तियाँ करते रहते हैं।मानधारी श्यामा जु को मनाते श्यामसुंदर जु कभी मनुहार करते हैं तो कभी विभिन्न वेश धर कर उन्हें रिझाते हैं।ऐसे ही श्यामा जु भी रसजड़ श्यामसुंदर जु को रसमय रखने हेतु नवरस धारण करतीं रहती हैं।
हे प्रिया हे प्रियतम !
'र' सरगम की थिरकन
मधुर स्थिर स्पंदन बन
सदा तुम सुख हेतु
नवरस स्वरूप धर
तुम जो कह दो तो
अति सुमधुर रस तरंग बन
सुखरूप सदा झन्कृत रहूँ
कभी रस बन
तो कभी रसीली चित्तवन बन
अनुरंजन मनोरंजन करती रहूँ  !!

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