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मृदुला 3

पढ पढ कर भर लिया भीतर इतना कि हम अनाधिकारी हम अनाधिकारी कि भूल उनका सुख चिंतन केवल अपने को मापने में ही लग गये ॥ उनके सुख को जीना तो कभी सीखा ही नहीं था हमनें ॥ कभी उनकी दृष्टि से स्वयं को देखा ही नहीं । उनकी पीड़ा उनकी तृषा उनका सुख उनकी इच्छा कहाँ है ये हमारे चिंतन में ॥ पूरा मन तो केवल अात्मगुणदोष विचारों से ही भरा न ॥ ये रिक्त हों तो वे पधारें वहाँ अपने सुख सहित ॥ वे निहारते सदा हमारा पथ तृषित से कि आवें कभी उन तक उनके होकर पर हमें तो सदैव आत्मविश्लेषण की प्यास ॥।आध्यात्म का पथ ही आत्मविश्लेषण का पथ हमारे लिये न ॥ सदा से सुन रहे कि हम अनाधिकारी हम अपात्र हम अयोग्य कोई मिला ही नहीं कहने वाला कि सब पात्र सब अधिकारी ॥ यहाँ तक पहुँच गये कि उन्हें शुद्ध प्रेम कर भी यूं लगता कि कोई अपराध कर रहें हों हम ॥ कुछ गलत हो गया हमसें इतना भर दिया गया ये भाव भीतर जबकी हृदय में बैठे वे कह रहे कि मुझे सुख तुझसे पागल ॥ पर उनकी आवाज दबा दी हमनें ॥ उनकी दृष्टि से भी खुद को चुराने लगे ॥ कि हमसें कष्ट उनको पर ये निर्णय किसने किया । क्या उन्होंने कहा हमसे कि तू कंटक है मेरे लिये पर मन नें मान लिया कि कंटक मैं ॥ तो क्यों करुं उन्हें स्पर्श चाहे वे कितने भी व्याकुल हो उस स्पर्श के लिये ॥ हृदय मचलता उनके लिये पर मन में बैठी हिदायतें कहतीं कि दूर रहो कि उन्हें कष्ट तुमसे ॥ कितनी बार जताते कहते पर सीमायें सुनने ही नहीं देती उन्हें  ॥ बार बार कहते मोरे समीप आ लेकिन ना जी हम योग्य नहीं तुम्हारे कह कर उनके सुख को तिरस्कृत करते ॥ दर्शन से नेत्र प्रफुल्लित होते उनके पर हम उन प्रफुल्लित नयनों को नकार ही सुखी होते न ॥ वे कहते क्यों तो कहा गया हम अधिकारी नहीं  न तो वे यदि पूछ बैठे कि दिन रैन इंद्रियों से जो भीतर ले जा रहे हो उसके अधिकारी हो तुम क्या? भोगों में जो लिप्त हो रहे उसके अधिकारी हो क्या ॥ लेकिन मेरे होकर भी मुझे जीने में तुम्हें अधिकारत्व की चिंता ॥ मुझसे दूर होने का क्या अधिकार है तुम्हें ?

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