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र से रस ,44 , संगिनी जु

!! प्रीति की रीति निराली !!

रसमगे नयनों की पल प्रति पल बढ़ती रस तृषा अनवरत व तीव्र झन्कृत होती धराधाम की निराली प्रीति भरी महकी मधुबन की पगडंडियों से फुलवारियों तक और रसिक कोर से स्वयं प्रियालाल जु में।एक बार जहाँ से श्रीयुगल गुजरते वहीं हर तरफ महकते गुलिस्तां खिल उठते और झुक झुक उनके चरणकमलों की धूल चापते जैसे उन्हें थाम उनका सदा पीछा करते रहें।अभी या कभी मन नहीं भरता नित्य दर्शन से लालसा रस तृषा सदा नई होती और बढ़ती भी रहती।नित्य नव रसलीलाओं का पान करते रसिकवर के लिए भी श्री युगल नित्य नवीन हैं और नित्य नवलालसा लिए तृषित से ये बड़भागी डूबते रहते नित्य नव लीलाओं में।ऐसी ही निराली प्रीति की रीति सदा श्यामा श्यामसुंदर जु में भी झलकती रहती जो नित्य नवीन भाव लिए प्रतिपल झन्कृत होती रहती है।श्यामसुंदर जु श्यामा जु से सदा मिलिततनु हैं पर उनके सुलोल नयनों की तृषा ऐसी कि निहार निहार कर भी कभी तृप्त नहीं होती।जैसे आज अभी बस इसी क्षण ही देखा हो एक दूसरे को।हर बार नव दुल्हा दुल्हन सा ही नवमिलन।अद्भुत रस तृषा जिसमें प्रियालाल जु सदैव परस्पर डूबे हुए ही पहले कभी ना डूबे हों जैसे।वही किशोरी जु वही मनमोहन पर हर बार नवीन रूप नवरस और नवीन लीला प्रेममयी झन्कारों से युक्त।एक बार नहीं हर बार गहराता सदा जैसे युगों का होते हुए भी अभी का ही हो।मिला हुआ और मिलन हेतु तिलमिलाता सदा।मिले हुए भी मिलने की मधुर झन्कारें उठती नहीं अपितु भभकती नित्य नवरस लिए श्रीयुगल जु में।प्रिया जु लाल जु में और लाल जु प्रिया जु में नवरस लिए समाए रहते झन्कृत होते सदा।
हे प्रिया हे प्रियतम !
मुझे इन निराली मधुर
प्रीति की झन्कारों में
डूबी हुई नित्य नवीन रसधार कर दो
तुम जो कह दो तो
नवरस बन क्षण दर क्षण
अनवरत नितनव बहूँ
तुम्हारे नयनों से नयनाभिराम
नव रस लिए झन्कृत रहूँ  !!

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