!! प्रेम विवर्त !!
आरसी में स्वयं को निहारा और समक्ष अपनी ही अद्भुत रूपमाधुरी से मुग्ध हुए श्यामसुंदर लीलावश आकर्षित हो बालरूप अपने प्रतिबिम्ब से खेलने लगते हैं और रसपान हेतु खुद को ही संग खेलने के लिए पुकार रहे हैं।उनके जैसा उन संग और हो भी कौन सकता है।कुछ बड़े होने पर आरसी में उनकी मुखछवि तब और भी लुभावनी हो जाती है जब श्यामसुंदर उसमें खुद को भूल अपनी प्रेममूर्ति अंतरंग शक्ति स्वरूपा श्यामा जु को निहारते हैं जैसे दो देह एक प्राण या दो प्रेमरंग एक पात्र।ऐसी चंचलता और मुग्धता कि कोई खुद को ही भूल बैठे और प्रेममयी झांकी में स्वयं का ही दर्शन दिव्यातिदिव्य लगे कि सर्वत्र वही वही दिखाई देने लगे।खुद को खुद से प्रेम या प्रेम में खुद को भुलाकर प्रेमास्पद ही रह जाए तब उस स्थिति में अपना प्रतिबिम्ब भी उन्हीं का दिखे तब घटता है प्रेम विवर्त।लुब्द्ध क्षुब्ध आश्चर्यचकित स्थिति जहाँ केवल तू ही तू रह जाए और रह जाए प्रेम या प्रेम की परछाईयाँ झन्कार रूप मात्र।ऐसी गहन झन्कारें जो न्यौछावर हो चुकीं प्रेमी व प्रेमास्पद के अति निर्मल विशुद्ध प्रेम पर।प्रेम में स्वयं का आस्तित्व खो चुके श्रीयुगल ऐसे जैसे अपने में ही डूबते उतरते हुए निहारते परस्पर।अबोध हो जाते विस्मृति में स्मरण रहता तो केवल चाहने का प्रेम करने का सुख देने का।कौन किसको दे रहा इसका बोध नहीं और ले कौन रहा इसका ज्ञान नहीं।इतना डूब जाते कि परस्पर रूप देह रंग दशा सब पल पल बदलता रहता है और प्रेम की मधुर झन्कारें बजती रहती हैं कि अभी और अभी और अभी और।स्वयं को स्वयं में भूल जाना।प्रेम झन्कारों का ही सुनाई पड़ना और सब क्रियाओं विधियों और यहाँ तक कि सुखदान करते अपने रस को भी भूल सीमाओं से बढ़ कर बहते रहना।क्षण दर क्षण सब वृत्तियों को भुला प्रेम विवर्त की गहराईयों में तरंगायित हो लहराते रहना।अद्भुत रसपान रससरिता का स्वयं हेतु नहीं रससुधा हेतु।
हे प्रिया हे प्रियतम !!
मुझे ऐसी ही गहन तरंग भर कर दो
स्वयं को भूल तुम हेतु
अंतरंगातिअंतरंग झन्कार बनूं
तुम जो कह दो तो
दिव्य चिन्मय रस रूप
तुम में तुम से सदा बहती रहूँ !!
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