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र से रस , 48 , संगिनी जु

!! अनुप्राणित अरूणिमा !!

प्रियालाल जु की अद्भुत सौंदर्य सौभाग्य और सुघड़ता भरी मधुरिम चितवन और प्राणों की अरूणिमा ऐसी जिससे सम्पूर्ण धराधाम प्रकाशित तो होता ही है और चेतन भी।उनके परस्पर प्रेम रस के बहाव से उनके प्राणों की अरूणिमा उन्हें तो रसस्कित रखती ही है और संग ही अनुप्राणित करती है वहाँ के कण कण को जो प्रियालाल जु की रस सुवासों में स्वास लेते और जड़ निष्प्राण से चेतन अनुप्राणित होते झन्कृत हो जाते।संग का गहरा प्रभाव हिमकण से भी मकरंद बन गिरता जिसकी महक से भ्रमर रूपी रसिकराज खिंचे चले आते स्वासित होने और एक मधुर झन्कार करते मंडराते रहते सदैव अति सुकोमल रस अरूणिमा पर।प्रियालाल की सदा जय हो का शब्द नाद बन थिरकता रहता यहाँ।इन अति दिव्य श्रीयुगल की सन्निधि सदा बहती और विहार में नित्यता अणु अणु को उल्लसित करती।परम लावण्यमयी और नवतारूण्य युगल परस्पर मुखकंवल को निहारते झन्कृत होते रहते और इन श्रीयुगल के नित्य नवरस में भरे कजरारे अनियारे नयनों का रस पल्लावित करता रजरानी व जलतरंगों को।सींचित होता यहाँ का अणु परमाणु ।युगल नीलाम्बर पीताम्बर की झन्कृत फहरान से तरंगायित होती डोलती इतराती पवन।मंद हंसन मुस्कन की लुब्ध करने वाली मिलित अधरों की रस झन्कारें।चंचल चपल मधुर चितवन की झन्कारें और नखकांति की प्रकाशित करने वाली मुग्ध अविरल छुअन सदा अनुप्राणित करती रहती है।एक एक रज कण जैसे युगल के मधुर नूपुर की ध्वनि से नादित हो।अद्भुत रस की अद्भुत झन्कारें।
हे प्रिया हे प्रियतम !
मुझे इन मधुर रस झन्कारों की
प्रीति से परिलिप्त निनादित
'र' से रस की गहनतम
एक रस झन्कार कर दो
तुम जो कह दो तो
अविरल प्रेम के नखचिन्हों की
सुंदर लावण्यमयी छाप लिए
चरण रज से मस्तक पर तिलक कर
युगल रस में सदैव झन्कृत अनुप्राणित रहूँ  !!

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