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र से रस , राधा , संगिनी जु

!! राधा !!

अहा ! 'र'से रस की सम्पूर्ण झन्कार केवल इस एक नाम की सरगम में जहाँ रस का उद्गम तो होता है पर उद्भव कभी नहीं।प्रियतम श्यामसुंदर राजाधिराज समस्त चराचर के एकमात्र स्वामी द्वारिकाधीश प्रियतम रसराज हो जाते जिनके नाम में रस का केवल आधा ही अक्षर उन्हें मधुर माधुर्य रस में भिगो डुबो देता है वही 'र' जब पूर्ण होता उन रसस्वरूपा श्रीराधा जु के नाम में तो किंचित एक नूपुर भी नहीं एक चिंगारी मात्र भीतर इस नाम की झन्कृत कर देती सम्पूर्ण ब्रह्मांड को।श्रीकृष्ण अत्यधिक सुंदर स्याम अति मधुर मुस्कन अति प्रिय चित्तवन अति सुघड़ चौंसठ कलाओं के एकमात्र अधिपति रस स्वरूप भावभावित ऐश्वर्यशाली और न जाने क्या क्या ! अति सरस सहज सरल प्रेम की मूर्ति श्रीकृष्ण भगवान पर उनके प्रेम में यह रस आता कहाँ से कि वे इतने आकर्षित होते सदा से।प्रेम स्वतः घटित हो ऐसा तो नहीं है ना।प्रेम को प्रेम ही खींचता यह भी सत्य पर उस प्रेम का सींचन होता रस से और भाव में परिवर्तित होता और ले जाता रस की गहराइयों में।ऐसे ही श्रीकृष्ण से हमें प्रेम तो होता है पर यह प्रेम रस के प्रादुर्भाव से ही बहता हुआ समाता है हृदय मंदिर की गहनतम तंद्राओं में जहाँ सुष्पत देह में रस की एक तृण से भी क्षीणतम झन्कार उठती जो है श्रीराधा।आह !यही 'र' शब्द कहना बहुत तुच्छ होगा तभी इसे एक सम्पूर्ण सरगम के रूप में पूर्ण स्थिर झन्कार कहा।इस पूरे 'र' से रस के भाव का उद्गम ही इस नाम से आरम्भ हुआ और आज सामर्थ्य नहीं इसे पूर्ण कहने की क्योंकि इस 'र' में एक तीव्र झन्कार है जो उस थिरकन को सम्पूर्ण नृत्य शैली से परे एक गहनातिगहन स्पंदन दे और अभी और व्याकुल करती है।प्रियतम श्यामसुंदर प्रिया जु के अति गहनतम महाभावरस के आगे ही श्याम प्रतीत होते और इसी रस की सम्पूर्णता में वे अत्यंत मनमोहक भी।उनकी अंगकांति मधुर चिंतन एक एक भाव में प्रिया जुड़े समाई हैं रस बन जो उनका नूर और स्पंदित झन्कार ही है उन्हें रसराज करती।
हे प्रिया हे प्रियतम !
मुझ अकिंचन को
तनिक उस रस समुंद्र की
किंचित एक तृण से भी क्षीणतम
रस झन्कार कर दो
तुम जो कह दो तो
उन श्रीराधे के श्रीचरणों के
दिव्य एक नूपुर की
चिंगारी मात्र मधुर व्याकुल
सिहरन बन थिरकती रहूँ
'र' से रस के इस झन्कृत
मधुर एहसास की
तनिक एक लहराती रस की फुहार बनूँ !!

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