सतरंज खेलत स्यामास्याम ।
दृगन बोलत तुम ही जीतो घनश्याम ।
हारूँ तुम पे नित नव प्राण पावे मोहे मेरो अभिराम ।
रस तो सजनी नैनन पियूँ , अबके तोसे मैं ना जीतूं ।
हे प्यारे ऐसे न छेड़ो , एक हूँ काल एक रस खेलो ।
लो प्यारी ,नैनन पी रहूँ , अहा अब तोहे जिय रहूँ ।
नैनन चपल देखत ललित आली , समझत खेल ज्यों छुपत बराबरी ।
पिय नयन प्यारी अधरन सोवै , मन्द मुदित श्यामा नैनन सु खोवै ।
तबहि सखी सारी खिलत बोली , हारी श्यामा जीते कुंजबिहारी ।
चोंक देखे प्यारी कब यूँ हारी , ललित गावे दूजे खेल डूबे काहे तुम बिहारी ।
हिय बसत श्यामा खेलत अबकि दोनों ओरी , यहाँ वहाँ हारन को नैना दौड़ी ।
कही तोसे एक खेल खेलो , गिरधर पिया तुम मोहे प्राणन ले लो ।
जीतूं तोसे तोरे लियूं , अब तोसे हार हार हाय मैं हारी ।
ललित रीझत रीझत वारी , स्यामा प्यारी मोरी कुंजबिहारी ।
श्री हरिदास कृपा ।
संक्षेप में ...
सखियों सन्मुख शतरंज खेलते मानसिक वार्ता , नेत्रों की वार्ता । परस्पर हार जाने की होड़ । प्रियाजु का नयन द्वारा कहना तुम मुझे हरा दोगे तभी तो मुझे पाओगे । इस तरह नयनों से ही अधर रस पान । और उधर शतरंज में श्रीप्रिया का हार जाना । प्रियतम का चौकना , यह कैसे हार गई ... प्रिया का मुस्कुराना । प्रियतम हृदय से प्रियतम को तत्क्षण पूर्ण रसास्वादन में डुबो प्रिया जु ने प्रियतम के भीतर से खेल शतरंज में स्वयं हरा लिया , और प्रेम के सर्वस्व रस प्रियतम को प्रदान किया । श्री हरिदास
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