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गैर हिन्दू रसिक भाव

मानव हृदय प्रेम का भूखा है। वह चाहता है कि वह अपने हृदय के प्रेम को और इस दु:खमय संसार की सारी विपदा-सुखदा को किसी के चरणों में अर्पित कर भूल जाये। वैष्णवधर्म प्रेम का धर्म है। स्वयं परब्रह्म आनन्दकन्द भगवान श्रीकृष्ण समस्त सौन्दर्य, माधुर्य, ऐश्वर्य, लावण्य, श्री, ज्ञान और वैराग्य के अनन्त भण्डार हैं। अत: उनका रूप और लीलाएं भी चिन्मय, अलौकिक और प्रेमरस से सराबोर हैं।

मेघश्याम, रसराज श्रीकृष्ण ऐसे हैं कि एक बार उनकी ओर जिसकी दृष्टि गयी, वही अपनी सुध-बुध भूलकर उनपर लट्टू हो गया। प्रेम के दीवाने अनेक कवियों ने अपने आपको श्रीकृष्ण भक्तिरस से भिगोया है। इन भावुक कवियों ने व्रज की कुंजगलियों की पवित्र रज में लोट-लोटकर उन सांवले-सलौने श्रीकृष्ण को रिझाने के लिए अपने अपार प्रेम को गाढ़ी चाशनी में पागकर निर्मल भक्ति के अथाह रस से उन्हें सराबोर कर डाला है।

इन भक्तकवियों की रसिक टोली ने व्रजराजकुमार श्रीकृष्ण की बांकी सूरत पर अपने को न्यौछावर कर दिया और अपने शब्दों से उन्हें रिझाया। यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण अनादि, अनन्त, अगोचर परमब्रह्म, परमात्मा, परमेश्वर आदि माने जाते हैं परन्तु भक्तकवियों की दृष्टि में वे कुंजबिहारी, बनवारी, पीतपटधारी, रसिक, रंगीले, छबीले, मुरलीवाले, बांकेबिहारी, नटवरनागर हैं। सांवले-सलौने श्रीकृष्ण ऊपर से ही मनमोहक नहीं हैं वरन् भीतर भी सुधारस से लबालब हैं। वे रसिक भक्तों के लिए सदा ही मधुरातिमधुर हैं। जिस समय वह मयूरकिरीट और मकराकृत कुण्डल से सजते हैं, पीताम्बर और वैजयन्तीमाला धारण करते हैं तथा ‘बैरन बँसरिया’ को मधुर अधरों पर धरते हैं, उनकी उस रूपमाधुरी पर मोहित हुए न जाने कितने प्रेम दीवाने अपना सब कुछ त्यागकर उन्हीं के होकर रह गए।

⭐️ आगरा के भक्त कवि ‘नजीर’ अकबराबादी श्रीकृष्ण का गुणगान करते हुए नहीं थकते–

तारीफ करुँ मैं अब क्या-क्या उस मुरली-धुन के बजैया की,
नित सेवा-कुंज फिरैया की और बन-बन गऊ चरैया की।
x   x   x   x   x
यह लीला है उस नंद-ललन मनमोहन जसुमति-छैया की,
रख ध्यान सुनो, दंडौत करो, जै बोलो कृष्ण कन्हैया की।।

⭐️ मुगल सम्राट अकबर के फुफेरे भाई और मन्त्री अब्दुर्रहीम ख़ानखाना (रहीम) श्यामसुन्दर की छवि को मन से हटा ही नहीं पाते और कहते हैं–

कमल-दल नैननि की उनमानि।
बिसरत नाहिं मदनमोहन की मंद-मंद मुसुकानि।।

रहीम के हृदय में श्रीकृष्ण के अतिरिक्त किसी दूसरे के लिए स्थान ही नहीं था। यह बड़ी ऊंची उपासना है। इसमें अपने इष्ट श्रीकृष्ण के सिवा संसार के किसी दूसरे पदार्थ से राग या लगाव नहीं रह जाता है–

मोहन छबि नैनन बसी, पर-छबि कहां समाय।
रहिमन भरी सराय लखि आप पथिक फिरि जाय।।
आजा मेरे मोहना पलक ओट तोहुं लेय।
ना मैं देखूं कोई और कूं ना तोय देखन देय।।

रहीम श्रीकृष्ण को क्या नजराना पेश करते हैं, प्रस्तुत है उसकी एक झलक–

‘जब रत्नाकर (समुद्र) तो आपका घर है और लक्ष्मी आपकी गृहिणी है, तब हे जगदीश्वर! आप ही बतलाइए कि आपको देने योग्य क्या वस्तु बच रही? हां, एक बात है, राधिका ने आपका मन चुरा लिया है, वही आपके पास नहीं है, इसलिए मैं अपना मन आपको अर्पण करता हूँ, कृपया ग्रहण कीजिए।’

⭐️ भगवत्प्रेमी रसखान का मन भगवान श्रीकृष्ण के सौंदर्य एवं उनकी लीलास्थली व्रजभूमि में ही अधिक रमा है।

रसिक रसखान तो कृष्ण की रूपमाधुरी पर न्यौछावर होकर अगले जन्म में भी गोकुल एवं व्रज के पशु-पक्षी, पत्थर बनकर ही कन्हैया के दास बने रहना चाहते हैं–
मानुष हौं तौ वही ‘रसखानि’, फिरौं मिलि गोकुल-गांव के ग्वारन।
जो पशु हौं, तौ कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु-मँझारन।।
पाहन हौं, तो वही गिरि को, जो धरयो पुर-छत्र पुरन्दर धारन।
जो खग हौं, तौ बसेरो करों नित, कालिंदी-कूल कदम्ब की डारन।।

भगवान श्रीकृष्ण का जितनी भी चीजों से सम्बन्ध रहा है–व्रज, यमुना, गौएं, ग्वाल-बाल, लकुटी, मुरली, या काली कामर–इन सब चीजों के लिए रसखान संसार की अमूल्य सम्पदा भी न्यौछावर करने के लिए तैयार थे। अपना सर्वस्व समर्पण ही रसखान के श्रीकृष्णप्रेम की पराकाष्ठा है–
या लकुटि अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुर को तजि डारौं,
आठहु सिद्धि नवो निधि को सुख, नंद की गाय चराय बिसारौं।
‘रसखान’ सदा इन आँखिन सों, व्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं,
कोटिन हू कलधौत के धाम, करील की कुंजन ऊपर वारौं।।

रसखान कहते हैं मैंने विधाता की कहां-कहां खोज नहीं की। उसे वेद, पुरान सभी जगह ढूंढा; पर वह मुझे कहां मिला–‘देख्यो कहां? वह कुंजकुटी-तट, बैठो पलोटत राधिका पायन।।’

⭐️ ‘ताज’ बेगम पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण से नाता जोड़कर केवल श्रीकृष्ण की बनी रहना चाहती थीं। उनकी श्रीकृष्ण भक्ति की पराकाष्ठा देखिए–
सांवला सलौना सिरताज सिर कुल्लेदार,
तेरे नेह-दाग में, निदाग ह्वै दहूंगी मैं।
नन्द के कुमार, कुरबान ताणी सूरत पै,
हौं तौ मुगलानी, हिन्दुवानी ह्वै रहूंगी मैं।।

एक अन्य पद में ‘ताज’ कहती हैं कि वह छैल-छबीला, रंग-रंगीला, चित्त का अड़ियल, और सभी देवताओं से अलग, दुष्टों का काल, संतों का रक्षक, वृन्दावन का नन्दलाल ही मेरा पति है–
छैल जो छबीला, सब रंग में रंगीला,
बड़ा चित्त का अड़ीला, कहूं देवतों से न्यारा है।
माल गले सोहै, नाक-मोती सेत सोहै,
कान कुंडल मन मौहे, मुकुट सिर धारा है।।
दुष्ट जन मारे, सतजन रखवारे, ‘ताज’
चित्त में निहारे, प्रेम प्रीति करन वारा है।
नन्दजू का प्यारा, जिन कंस को पछारा,
वह वृन्दावनवारा, कृष्ण साहेब हमारा है।।

इन भक्त कवियों की ऐसी मधुर कृतियां अंतस्तल पर अमिट प्रभाव छोड़ती हैं। बस जरुरत है थोड़े मनन की और हृदय में श्रीकृष्ण के लिए वैसा ही प्रेम और दर्द महसूस करने की।
जाहिं देखि चाहत नहीं कछु देखन मन मोर।
बसै सदा मोरे दृगनि सोईं नन्दकिशोर।।

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