प्रिया प्रियतम मिलन .....॥ कैसा मिलन है उनका ॥ क्या कल्पना में भी आ सकता है ॥ जैसै सागर की दो लहरें विपरीत दिशा से धावित हों टकरायें परस्पर एक होकर बहें और पुनः दो हो जायें ॥ कुछ क्षण का उनका एकत्व जहाँ दो दिखती भी नहीं वे बस एक ही ॥ मिलन ....कितना अद्भुत और रहस्यमय शब्द है यह ॥ मिलन होता किसका है वास्तव में । मिलते हैं कौन ॥ क्या दो मिल सकते हैं कभी ॥ मिलन तो सदैव एक ही में घटित होता है ॥ एक में मिलन ......॥ ये क्या कहा गया । अरे मिलन का अर्थ तो मिलना है न , तो मिलंगें तो वे जो दो हैं न ॥ स्वयं से स्वयं का क्या मिलना । जो पहले से ही एक हैं उनका क्या मिलन॥ पर तनिक सूक्ष्मता से चिंतन तो करिये ॥क्या कभी दो तत्व मिलते भला । मिल ही नहीं सकते ॥ मिलते तो सदा वह जो तत्वतः एक ही हैं पहले से ॥ संसार में भी हम नित्य इसके साक्षी हैं पर सूक्ष्म चिंतन नहीं कर पाते ॥ क्या शर्करा मिलती कभी जल से ॥ क्या लवण एकरूप होता जल से ॥ आप कह सकते हां ये तो मिलते ही हैं ॥ पर क्या वास्तविक मिलना है वहाँ ॥शर्करा केवल जल से संयुक्त हो पाती है ॥ ऐसे ही लवण भी । जो पुनः प्रथकता को प्राप्त हो जाते ॥ मिलन तो केवल जल का जल से ही संभव है , दुग्ध का दुग्ध से ॥ ऐसे ही अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं ॥ जो मिल कर प्रथक नहीं हो सकते और यदि प्रथक का तात्पर्य दो भागों में बांटना है तो दोनो भाग ही पूर्ण होते ॥समान गुणधर्म वाले ॥ ऐसे ही श्री प्रिया लाल का मिलन , स्वयं से स्वयं का ॥ क्या हमारा लाल जू से ऐसा मिलन हुआ कभी ॥ उनसे उन होकर मिले क्या कभी । हम तो निज गुणधर्म लेकर मिलते उनसे ॥ निजता से तत्गुणता की यात्रा ही तो प्रेम यात्रा है वास्तव में ॥ कृष्ण से कृष्ण होकर मिलो तो होगा मिलन ॥शेष दर्शन हो सकता , सामिप्य हो सकता , सानिध्य हो सकता पर मिलन नहीं हो सकता ॥ ज्यों दुग्ध में दुग्ध घुल जावे तो हुआ मिलन ॥ उनके लिये तत्क्षण केवल हम हों और हमारे लिये उस क्षण केवल उनकी सत्ता ॥ न वे हों न हम परस्पर हों केवल तब हुआ मिलन ॥
दिखते अवश्य श्री प्रिया लाल है पर वास्तव में लाल जू नहीं वहाँ केवल श्री प्रिया हैं उस पल और वास्तव में श्री प्रिया नहीं केवल लाल जू हैं परस्पर ॥ निज स्वरूप का , स्वभाव का निज अस्तित्व का भी लोप हो केवल प्रेमास्पद की सत्ता उसी का स्वरूप उसी का स्वभाव शेष रहे प्रेमी में तब होता वास्तविक मिलन ॥ राधा का राधा से श्यामसुंदर का श्यामसुंदर से ॥
खो सके जो स्वयं को इतना वह पाता यह सुख ॥
भाई श्री जी के शब्दों में कहूँ तो आत्महारा ॥ जो स्वयं को हार जावे ॥।आत्महारा प्यारे जू और आत्महारा श्री प्रिया
श्यामसुन्दर को जो श्यामसुन्दर होकर देखे वही श्यामसुन्दर की तृषा बुझा सके । श्यामसुन्दर को श्यामसुन्दर ही चाहिये ॥ उन्हें केवल वे स्वयं ही तृप्त कर सकते अन्य नहीं ॥
जो श्यामसुन्दर का भाव पा सके वही वास्तव में स्पर्श कर सके उन्हें ॥ प्रियतम के नेत्रों से ही प्रियतम देखे जा सकते ॥ प्रियतम के अधरों से ही प्रियतम अधरसुधा पी जा सकती वास्तव में ॥ उसका यथार्थ रस प्रकट ही वहाँ होगा शेष तो निज भाव के रस का ही रसपान होगा।
और यह सब संभव कहाँ श्री प्रिया में सो जो रस वे पीती अन्य कोई पी ही नहीं सकती ॥ जो रूपमाधुरी वे आस्वादन करतीं अन्य कोई कैसै करे ॥
और इसी प्रकार श्री प्रिया का पूर्ण रसास्वादन केवल लाल जू ही कर पाते ॥
अर्थात तुम मैं हो जाओ और मैं तुम फिर हम मिले । कई रसिकों की श्रंगार लीला जिसमें दोनों के स्वरूप बदल गए । यानि राधा कृष्ण हो गई क्योंकि जो कृष्ण है उन्हें कृष्ण हो कर मिले । और श्यामसुन्दर राधा हो गए अर्थात राधा से राधा मिले ।
यह प्रेम विलास विवर्त भी है । रूप में रूप समा जावे ।
रस में रस समा जावे । दोनों का प्रेम एक हो जावें ।
रसिक पदों में आता है कौन राधा कौन कृष्ण पता नही दोनों एक ही दिख रहें ...
जयजय श्यामाश्याम ।
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