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र से रस , 38 , संगिनी जु

!! धीर अधीर हिय की पीर !!

प्रियालाल जु की एक गहन अति सुंदर झांकी अगर जीवन में नयनों में उतर गई तो तन मन प्राण थिरकने लगेंगे।एक पल की निर्मल प्रीत की झन्कार मात्र इस मन में यदि बज उठे तो प्रियालाल ही भीतर समाए हुए मिलें पर यह सम्भव कहाँ।रसिकवर प्रतिपल प्रियालाल जु के मधुर चिंतन में डूबे हुए जग से नाता तोड़ चुके होने पर भी उस एक घड़ी का इंतजार करते रहते हैं।उनके मानसपटल पर स्वप्न जगत की झांकी से गहन सत्य जगत की परम सुमधुर प्रियालाल जु की झांकी प्रतिपल निश्चल प्रेम सी बढ़ती रहती है।उनकी दर्शन की लालसा व प्रेम की प्यास तीव्रता से उनके हृदय में प्राणवायु सी बहती है।गहन रस होने पर भी हिय की पीर शांत नहीं होती और अधीरतावश प्रेममय रसिक भक्त भी अश्रुपूरित नयन कोरों से प्रियालाल जु से मिलनोत्कण्ठा लिए मनुहार करते ही रहते हैं।जैसे श्यामा श्यामसुंदर जु की रसतृषा अनवरत है वैसे ही रसिकों की दर्शन लालसा अति गहन अधीर है।पर उनके लिए यह लाड़ली लाल जु का नित्य रसदर्शन जो गहनतम है एक झन्कार रूप समाया रहता और और और अभी और गहराने को सदैव झन्कृत करता रहता है।परस्पर सुखदान की प्रियालाल जु की उत्कण्ठा एक तरफ और सेवारत सखियों का रस एक तरफ।रसिक हृदय मंदिर में सदा झन्कृत रसलीलाओं का तृषित भाव एक तरफ जो पीड़ा से जलन भी देता श्यामा श्यामसुंदर जु से अनवरत गहन आलिंगित हो समाने की और शीतल भावों का संगम भी कराता जिससे श्रीयुगल सदैव मिलिततनु ही रहते।मधुरातिमधुर रसवृतियों में डूबे प्रियालाल जु नित्य नवरस स्वरूप ही उतरते रहते रसिक छाया पटल पर और झन्कृत करते अनवरत उनकी रगों में बहते प्रेम रस को।
हे प्रिया हे प्रियतम !!
इस धीर अधीर हिय रस की
एक अति व्याकुलित झन्कार
मुझे कर दो
सिसकती कभी इठलाती सी
मद में चूर मदमाती हुई
वन वन लता लता से टटोलती
सुद्धबुद्ध बिसरा चुकी
रस रूप महकती फुलवारी बनूं
तुम जो कह दो तो
पुकारती तुम्हें पाती
लुक्का छिप्पी का खेल खेलती
कभी क्षुब्ध कभी आनंदित
रसिक हिय की रस तरंग बन
तुम में अनवरत बहूँ !!

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